शनिवार, 12 नवंबर 2011
शनिवार, 5 नवंबर 2011
रविवार, 30 अक्टूबर 2011
रविवार, 16 अक्टूबर 2011
रविवार, 9 अक्टूबर 2011
सोमवार, 26 सितंबर 2011
मंगलवार, 20 सितंबर 2011
बुधवार, 14 सितंबर 2011
शनिवार, 10 सितंबर 2011
शनिवार, 3 सितंबर 2011
शनिवार, 13 अगस्त 2011
रविवार, 7 अगस्त 2011
गुरुवार, 28 जुलाई 2011
रविवार, 10 जुलाई 2011
शनिवार, 2 जुलाई 2011
शनिवार, 25 जून 2011
रविवार, 19 जून 2011
रविवार, 12 जून 2011
शनिवार, 4 जून 2011
सोमवार, 30 मई 2011
रविवार, 22 मई 2011
शनिवार, 14 मई 2011
शनिवार, 7 मई 2011
रविवार, 1 मई 2011
बुधवार, 27 अप्रैल 2011
8:12 am
विवेक दत्त मथुरिया
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सब मस्त है अपनी ढपली,अपने राग में ।
जिसे देखो,वही हलाक करने में है लगा
यह देश है या कसाइयों का बाड़ा ।
जिंदगी फंसी है जद्दोजहद में ,
जैसे किश्ती फंसी हो भंवर में ।
यू न डर इस रात के अँधेरे से ,
फिर एक नयी सुबह होने वाली है
अगर बनना है तुझे आदमी
जा किसी से दिल लगा .
अगर मरना है तो फिर तू जी ,
ताकि मोंत भी एक जश्न हो तेरा
आदमी होने की बस इतनी तफतीस है
किसी के दर्द का एहसास होता है या नहीं .
शनिवार, 23 अप्रैल 2011
रविवार, 17 अप्रैल 2011
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
रविवार, 10 अप्रैल 2011
शनिवार, 2 अप्रैल 2011
सोमवार, 28 मार्च 2011
5:12 am
विवेक दत्त मथुरिया
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भारतीय गणतंत्र अब पूरी तरह जनता के लिए एक षड़यंत्र बन चुका है। पूरा का पूरा देश षड़यंत्रों में फंसा नजर आ रहा है। आज देश में आये दिन होने वाले षड़यंत्र और घोटाले भारतीय गणतंत्र की पहचान बन चुके है। भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की अवैध संतान यानि दलाल लोक सेवकों के सहयोग से नित नये षड़यंत्रों द्वारा आम आदमी के उत्पीड़न और शोषण में लगे है और जनता को सरेआम दोनों हाथों से लूटने में लगे है। तिरंगे के बीच दिखायी देने वाला विकास का चक्र, दमन और शोषण का चक्र बन कर रह गया है।
हर कोई एक-दूसरे को नसीहत देने में लगा है। संवैधानिक संस्थाओं की जनता के प्रति किसी तरह की जबावदेही उनके क्रिया- कलापों में दिखायी नहीं दे रही है। संवैधानिक संस्थाओं के कर्ताधर्ता बेहतरीन कलाकार की तरह लोकतंत्र के रंगमंच पर व्यवस्था का स्वांग करने में लगे है। सार्वजनिक जीवन में आदमी के चारित्रिक पतन की यह करूण कथा इस बात की ताकीद है कि हम आजादी के छह दशक बाद भी लोकतंत्र का पहला सबक भी याद नहीं कर पाये। लोक सेवकों का कार्य व्यवहार पूरी तरह से गैर जिम्मेदाराना हो चुका है। अपनी निजी हित पूर्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते है। नौकरशाही पर न्यायपालिका और विधायका का अकुंश बेअसर दिखायी दे रहा है। परम स्वतंत्र सिर पर ना कोई वाली कहावत नौकरशाही पर लागू हो रही है।
कभी राष्टÑीय राजनीति का केन्द्र रहा उत्तर प्रदेश गत दो दशकों से अराजकता का दंश झेल रहा है। कानून-व्यवस्था की स्थिति की तुलना जंगल राज से करना ही ज्यादा समीचीनी होगा। इस प्रदेश की बद से बदतर हालात के लिए किसी एक दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए सभी दल समान रूप से दोषी है। आंज प्रदेश में शुचिता और शुभता के लिए कोई स्थान शेष नहीं है। मौका परस्ती यहां की राजनीति का आदर्श बन चुका है। चारों ओर प्रदेश में माफिया राज कायम है, जिसके आगे शासन और प्रशासन पानी भर रहे है। जमीनों के कारोबार से जुडेÞ आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का राजनीति में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप से सभी परिचित है।
नौरशाही स्थाई सरकार के रूप में सब पर भारी पड़ रही है।
जिले के राजा माने जाने वाले जिलाधिकारियों को अपने कार्यालयों में भ्रष्टाचार कतई दिखायी नहीं देता है। इस ना दिखने की बीमारी को सब जानते और समझते है। वही पुलिस कप्तानों को थानों में होने वाली मनमानी दिखायी नहीं देती है। पीड़ित न्याय की आस में आला अधिकारियों के दरों पर के चक्कर लगा-लगा कर थक कर अपने करम पर हाथ रख घर बैठ जाते है।
शासन की कल्याणकारी योजनाओं का जमा खर्च कमीशन में बंदर बांट हो जाता है या अपात्र लोग उसका लाभ लेते है। मनरेगा में का भ्रष्टाचार इसका जीता जागता प्रमाण है। गैस की कालाबाजारी, सार्वजनिक जमीनों पर अवैध कब्जे और अतिक्र मण आजादी का तराना गा रहे है। सड़कों पर चलने वाले डग्गेमार वाहन, सट्टे की खाईबाड़ी व अन्य गैर कानूनी धंधों से प्राप्त होने वाली ‘मंथली’ इलाकायी पुलिस की परंपरा में स्थायी आय का जरिया बन चुकी है। तब ऐसी स्थिति में पुलिस से शान्ति सुरक्षा की अपेक्षा करना अपने में एक दिवा स्वप्न से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इलाके के दलालों को थानों में संभ्रांत नागरिक का दर्जा मिला हुआ है।
देश और प्रदेश के इन हालातों पर मुझे अपनी स्वरचित कविता सटीक लगती है:
देश क्या है?
एक बाड़ा।
जनता क्या है?
भेड़।
शासन क्या है?
एक चरवाह।
और प्रशासन ?
चरवाहे के हाथ में लगी लाठी।
आजादी का मतलब ?
भेड़ की उन उतारना।
तो लोकतंत्र ?
एक पहेली या भेड़तंत्र...।
सोमवार, 21 मार्च 2011
5:27 am
विवेक दत्त मथुरिया
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किसी बात को कहना और कहे हुए का अनुपालन दोनों में अन्तर आ जाने पर व्यक्ति की साख प्रभावित होती है। आज के दौर में कहे हुए का अनुपालन करना सबसे बड़ा दुरूह और कठिन कार्य है। आदमी की बदलती व्यावसायिक सोच ने शब्दों की सार्थकता के लिए एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। हमारी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत ऐसे प्रमाणों से भरी पड़ी है कि जहां वचन के पालन के लिए लोगों ने कितने कष्ट सहकर अपनी वचन की सार्थकता को कायम रखा। लेकिन आज हर रोज शब्दों के साथ बलात्कार होते देखा जा सकता है।
शब्दों के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ हमारे सियासतदार कर रहे है। अपने को जनता का चौकीदार, पहरेदार कहने वाले हमारे भाग्य विधाता रहनुुमा चुनाव जीतने और सत्ता मिलने के साथ अपनी कहीं बात को या तो भूल जाते या फिर अपनी बात से मुकर जाते है। और उनको चुनने वाली जनता अपने ठगा सा महसूस करती है। इसलिए अब समाज में नेता शब्द की सार्थकता शनै: शनै: समाप्त हो रही है। आज नेता शब्द व्यंग और गाली के रूप मे अपना प्रभाव कायम करता जा रहा है। हमारे नामचीन व्यंगकार नेताओं को लेकर हर रोज पत्र-पत्रिकाओं में तीखें व्यंग लिखते है और कार्टूनिस्टों को कार्टून बनाने के लिए मसाला उपलब्ध कराते है।
यहां सबसे बड़ा सवाल इस बात का है कि विश्वास कायम करने के लिए अब शब्द कमजोर पड़ने लगे है। अविश्वास का प्रभाव इस वक्त सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्रों में देखने को हर रोज मिल रहा है।
शब्दों की घटती सार्थकता के लिए सबसे ज्यादा दोषी हमारे सियासी रहनुमा है। अपने छुद्र राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए समाज को बांटने के काम लगे है। नयी-नयी परिभाषा गढ़कर समाज में वैमनस्यता फै लाकर राजनीति को व्यापार की शक्ल दे रहे है। जो राजनीति जनता की सेवा और व्यवस्था संचालन का आधार थी, आज वह अपन बदले हुए रूप में जनता के शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार की ध्वज वाहक बन गयी है।
आज समाज में ज्यादातर लोग शब्दों का दुरुपयोग कर एक दूसरे को ठगने में लगे है। आज हर क्षेत्र में बढ़ती व्यावसायिकता ने शब्दों की सार्थकता का सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा कहे गये शब्दों के मायने क्या है?
रविवार, 27 फ़रवरी 2011
11:54 pm
विवेक दत्त मथुरिया
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भ्रष्टाचार,भ्रष्टाचार,भ्रष्टाचारआज दसों दिशाओं से यही आवाज सुनाई दे रही है। हर आदमी के मन में एक ही कामना है कि कैसे भी हो इस भ्रष्टाचार रूपी दानव से मुक्ति मिलनी चाहिए। सब लोग चिन्ताग्रस्त है। गजब इस बात का है कि जनता की इस चिन्ता से हमारे कर्णधार पूरी तरह बेफिक्र नजर आ रहे है। उन्हें मालुम है कि इस देश की जनता बड़ी लालची और लोभी है। जनता के लोभ और लालच के कारण ही तो भ्रष्टाचार फल फूल रहा है। सब को दो नंबर के काम जो कराने है। जब गलत काम कराओगे तो उसके एवज में करने वाले को कुछ तो मिलना ही चाहिए । पापी पेट का सवाल है।
अगर आज भ्रष्टाचार रूपी दानव है तो उसके लिए जिम्मेदार नेता नहीं बल्कि जनता ही है। लोकतंत्र का मतलब होता है कि जनता का शासन । जैसी जनता वैसा शासन । फिर क्यों चिल्ला रहे हो कि भ्रष्टाचार है। कहावत है कि जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे। जनता का भ्रष्टाचार चुनावों खुब देखा जा सकता है। अब जनता के लिए चुनाव विशेष पर्व बन चुके है। चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को जनता को पटाने के लिए बड़े-बड़े यत्न करने पड़ते है। जगह-जगह चुनाव कार्यालयों पर लंगर चलाने पड़ते है। इसके अलावा सोमरस का भी इन्तजाम करना पड़ता है। प्रत्याशी न करे तो उसको चुनाव के दौरान गाली खानी पड़ती है। जेब में नहीं है दाने अम्मा चली भुनाने । जब औकात नहीं थी तो किसने कहा कि चुनाव लड़ना ? क्योंकि जनता को भी मालुम है कि यही मौका है कि गुलदर्रे उड़ालो। जीतने के बाद यह गुलदर्रे उड़ायेगा । जनता का तो वो हिसाब है कि चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी और अन्टा हमारे बाप दादों का । अब तुम्ही बताओं कि प्रत्याशी घर फूंक के तो तमाश नहीं देखेगा आखिर उसके भी बाल-बच्चे है। अब तुम्हीं ही बताओ नेता को भ्रष्टाचार करने को किसने मजबूर किया? यही न जनता ने तो फिर भ्रष्ट कौन नेता या जनता?
बुधवार, 23 फ़रवरी 2011
6:12 am
विवेक दत्त मथुरिया
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मैंने अपनी आंखों से लाशों का जीवन देखा है
आपने लाशों का जीवन देखा है या नहीं
यह मैं नहीं जानता
पर जानता हूॅ लाशों का जीवन
मैँने एक बार भोलानाथ तिवारी की पुस्तक
शब्दों का जीवन पढ़ी थी
जिसमें बताया गया शब्दों का जीवन
शब्द जन्म लेते हैं, शब्द मरते हैं
शब्द बड़े होते हैं, शब्द घटते आदि
ऐसे ही लाशें का जीवन होता हैं
लाशें जन्म लेती है, लाशें मरती हैं
लाशे खाती हंै, लाशें पीती हैं
लाशें हंसती हैँ, लाशें रोती हैं
लाशों का अपना एक संसार है
लाशें युवा भी हैँ, वृद्ध भी
लाशें शिक्षित भी और अशिक्षित भी
लाशें गरीब भी है, अमीर भी
लाशों के यहां जनतंत्र है
मंहगाई और भ्रष्टाचार से लाशें परेशान है
लाशें बेवस और लाचार भी
लाशों की अपनी जातियां हैं और धर्म भी
लाशें अपराधी हैं और दलाल भी
यह सब में लाश की मानिंद बैठा सोच रहा था
तभी मेरे कानों एक गीत सुनाई पड़ा
आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिन्दुस्तान की...
विवेक दत्त मथुरिया
मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011
9:47 am
विवेक दत्त मथुरिया
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रविवार, 20 फ़रवरी 2011
3:08 am
विवेक दत्त मथुरिया
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तुम्हारे बाप का है राज यह मैं जानता हूं
कटेगा शीश मेरा आज, यह मैं जानता हूं।
शांति का पाठ पढ़ाने नगर में आ गए हिजड़े
बजेंगे फिर वही सुरसाज, यह मैं जानता हूं।
मंदिर-मस्जिद की बातें सुनके सुखिया रो पड़ी
लुटेगी फिर उसी की लाज, यह मैं जानता हूं।
महल में शांति छायी है, नगर के लोग सहमे हैं
गिरेगी झोपड़ी पर गाज, यह मैं जानता हूं।
प्रेम के किस्से किताबों में पढ़ा जब भी पढ़ा है
तुम्हारे प्रेम का क्या राज, यह मैं जानता हूं।
फूल खुशियों के खिले होंगे तुम्हारे गांव में
पर नहीं दोगे मुझे आवाज, यह मैं जानता हूं।
शनिवार, 19 फ़रवरी 2011
11:06 pm
विवेक दत्त मथुरिया
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एक- एक गेंद से जुड़े परिणाम को जानने की उत्कंठा तो यही दर्शाती है कि आज क्रिकेट हमारे नित्य धर्म - कर्म का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। यही अंग्रेजों की दूरदृष्टि का प्रमाण है। जिसके पीछे अरबों-खरबों रूपये का बाजार और अवैध और काले कारोबार के रूप में सट्टे का खेल जग जाहिर है। तब क्रिकेट किसी भी द्रष्टि से एक स्वस्थ्य खेल नहीं कहा जा सकता। बाजार की सबसे बड़ी विशेषता या विलक्षणता यह है कि वह सबसे पहले वह को आकर्षिक कर आदी बनाता है फिर मुनाफे का मोटा खेल खेलता है। क्रिकेट मे नशे के सभी लक्षण मौजूद है जो व्यक्ति के दिल और दिमाग दोनों पर अपना सरूर बनाये रखता है। एक रिक्सा चालक से लेकर नौकरीपेशा, व्यापारी सहित हर वर्ग का आदमी एक- एक बॉल के परिणाम को जानने के लिए तीव्र उत्सुक नजर आता है। आईपीएल का भ्रष्टाचार इसका प्रमाण है कि आज क्रिकेट सिर्फ और सिर्फ पैसे का खेल है। हमारी मूखर्ता ये है कि हम राष्ट्र का बेसकीमती समय जाया करते है।
क्रिकेट खेलो का महादानव है जिसने अन्य खेलो का असित्व लगभग समाप्त सा ही कर दिया है। क्रिकेट ने किशोर और युवाओं को दिवास्वपन में जीने का आदी बना दिया है जो जमीनी हकीकत से दूर मुगेंरी लाल की तरह क्रिकेट स्टार बनने के ख्यालों खोये रहते है। मनौविज्ञान की दृष्टि से असमान्य व्यवहार का लक्षण है। एक स्वस्थ्य दिमाग का व्यक्ति हमेशा यथार्थ से मुंह नहीं मोड़ता। व्यवस्था का यथार्थ तो यह है कि आज लोगों के मुंह से निवाला छीना जा रहा है, न इंसाफ है और न सुरक्षा ।
अब रही बात हमारे क्रिकेट स्टारो की तो उन्हें राष्ट्र की इन समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं बस उनकी नजर तो सिर्फ धन पर है कि अपनी उपलब्धियों को कैसे भुनाया जाये? विज्ञापन के अलावा इवेन्टस,शो आदि क्रिया-कलापों से सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने मे जुटे रहते है। राष्ट्र और जन सरोकारों से इनका दूर-दूर तक कोई लेना -देना नहीं है । आज क्रिकेट एकादमी बनाकर लोग क्रिकेट का व्यापार करने पर उतर आये है।
बाजार का पैरोकार मीडिया क्रिकेट को एक उत्पाद के रूप में प्रमोट करने में अपनी निर्णायक अहम भूमिका अदा कर रहा है। क्रिकेट का वायरस जनसरोकरों विमुख करने का ही काम कर रहा है। यह क्रिकेट का विरोध नहीं बल्कि उसकी मीमांसा है।
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
11:41 pm
विवेक दत्त मथुरिया
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लुट न जाये बाहर, मालियों मधुवन की सौंगंध
तुम्हें इस उपवन की सौंगध
देश के जन- जन की सौंगंध
सोने सा पंजाब मेरा और चांदी सा कश्मीर
खानों का वह प्रदेश निराला ब्रह्मपुत्र के तीर
नागालैंड,मिजोरम, त्रिपुरा उत्तर पूर्व की प्राचीर
रक्षा करनी इन सबकी, यह सब भारत की जागीर
अलग न करने पाये कोई दुश्मन, डाल के राजनीति के फंद
मिट न जाय बाहर मालियों ....
उत्तर की सीमा पर चीन नित डाला करता डेरा
दक्षिण में श्रीलंका के हाथों नित मरता तमिल मछेरा
पश्चिम में पाक लगा रहा अमरीकी शस्त्रों का ढेरा
पूर्व में बंगला देश रोकता कंटीले तारों का घेरा
सजग बने रहना सीमा पर होकर के निर्द्वन्द
लुट न जाय बहार मालियों ......
राष्ट्रीय एकता और अखंडता ऊपर है जन-जन से
हिन्दू,मुस्लिम, बौद्ध, सिख, सब फूल है इसी चमन के
जाती धर्म औ रूपरंग के भेद है स्वार्थी मन के
इन्हें लड़ाते रहे युग-युग से दुश्मन कानून अमन के
सांप्रदायिक तत्वों पर लगा दो खुलकर के प्रतिबंध
लुट न जाय बाहर मालियों.......
लूट-लूट कर जनता का धन, जो लगा रहे अंबार
मिलावट, तस्करी, कालेधन से करते मुद्रा को लाचार
ये सब दुश्मन है जनता के , इनको नहीं देश से प्यार
जो जासूसी करते विदेश की, वे सब भारत मां के गद्दार
इन गद्दारों का नाम मिटा दो,करके अपनी आवाज बुलंद
आज देश से बसंत चाहता यह पावन अनुबं
लुट न जाय बाहर मालियों .......
राम गोपाल मथुरिया
बुधवार, 2 फ़रवरी 2011
सोमवार, 31 जनवरी 2011
2:54 am
विवेक दत्त मथुरिया
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