गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

राम गोपाल मथुरिया

नव वर्ष

नये वर्ष के स्वागत में कवि नूतन राग सुनाओ

विश्व-विषमता के आगन में समता रस बरसाओ

बहुत गा चुके गीत आज तक चाँद ,सितारों के

ऊषा संध्या रजनी ,सूरज के झूठे प्यारों के

पावस में उगते इंद्रधनु के सतरंगी तारों के

बहुत सुने संगीत सावनी मेघ मल्हारों के

युग युग से पीड़ित मानव को अब कविता का विषय बनाओ

नये वर्ष के स्वागत ....................

रचते रहे तुम सदा से उपवन की बहारों के

कलियों पर मंडराते अलियों के मद मस्त नजारों के

जूही,कुमोदनी ,मालती ,चम्पागंधा के इशारों के

कोयल,चातक के म्रदु स्वर मोरों की पुकारों के

सदा उपेक्षित काँटों में जीवन रस फैलाओ

नये वर्ष के स्वागत ................

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

-विवेक दत्त मथुरिया
यह देश किसका है?
उनका, आपका या फिर हम सबका
यह देश उन्हीं का है
और इसका पूरा विधान भी उनका है
व्यवस्था परिवर्तन की बात
या जनहित में उसकी आलोचना
अभिव्यक्ति नहीं, देशद्रोह है
यह गलती भगत सिंह, आजाद, बोस ने की
और यही गलती कर बैठा विनायक सेन।
राजा हो या राडिया, या फिर कल्माड़ी...
लूटना कोई अपराध नहीं
स्टेट्स सिंबल है आज
इनके लिए इंसाफ
एक दिखावा है या फिर छलावा
क्योंकि ये जन-गण-मन के अधिनायक हैं
इसलिए यद देश उन्हीं का है
हमारा और आपका नहीं।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

मेरे गीत है न प्यार के, प्यार के न श्रंगार के, न मोसमी बाहर के
गीत बस गाता हूँ वक्त की पुकार के
वक्त क्या कह रहा, इसे पहचान लो
आँख मूंद कर न कोई बात मान लो
साजिशों ने डाला आज द्वार-द्वार डेरा है
जीतता अन्धकार पिटता सबेरा है
राम गोपाल मथुरिया

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

शनिवार, 13 नवंबर 2010

विवेक दत्त मथुरिया
जब सारा देश दीपावली मना रहा है, इसकी रौनक और चकाचौंध चारों तरफ फैली हुई है,तब कम ही लोग जानते हैं कि मूलत: ब्रज के रहने वाले इस पर्व को नहीं मनाते। ब्रज की हर परंपरा,खुशी और खामोशी का संबंध अनिवार्यत:यहां के परम प्यारे श्रीकृष्ण से है। दीपावली न मनाए जाने के पीछे भी वही हैं। धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि दीपावली के दिन ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गोलोक गमन किया था। शास्त्रों में वर्णन है कि योगी के देहत्यागने पर शोक नहीं मनाया जाता, लेकिन उत्सव भी नहीं मनाया जाता। फिर यह तो ब्रज है जहां की गोपियों ने उद्धव जैसे ब्रह्म ज्ञानी से भी-‘निर्गुण कौन देस को वासी’ जैसे प्रश्न पूछकर अंतत: उन्हें भक्ति से सराबोर कर दिया था। इसलिए यहां तो यह ब्रजराज,भक्तवत्सल परम प्रिय कृष्ण के, कान्हा के विछोह का अवसर है तो एक चुप सी लग जाती है ब्रजवासियों में। उनके मन में कहीं न कहीं श्रीकृष्ण का माधुर्य मचलता है पर यह दिन सामान्य नहीं इसलिए इसमें वह चमक, वह धमक वे नहीं देख पाते जो सारी दुनिया देखती है। इस तथ्य की पुष्टि ब्रजोद्धारक, ब्रजयात्रा प्रवर्तक, रासलीला अनुसरण कर्ता ब्रजाचार्य श्री नारायण भट्ट के बंशज ब्रजाचार्य पीठाधीश गोस्वामी दीपक राज भट्ट ने भी की है। इसीलिए ब्रज में दीवाली के मुकाबले गोवर्धन पूजा कहीं ज्यादा समद्ध है। क्योंकि इसका प्रचलन भी तो श्रीकृष्ण ने ही किया था। ब्रज की संस्कृति पूर्णत: गौ-गोप संस्कृति है जो हमारी कार्यशीलता को प्रमाणित करती है। ब्रज में दीवाली के प्रति उत्साह न होने के पीछे श्रीकृष्ण के विछोह का ही आधार है, लेकिन गोवर्धन पूजा पूरे उत्साह और उमंग के साथ होती है। ब्रज में गोवर्धन पूजा वाले दिन ही घरों में पकवान बनाये जाते हैं। गिर्राज पूजा गोवंश की समृध्दि के महत्व को स्थापित करने वाला पर्व है। इस दिन अन्नकूट बनाया जाता है। अन्नकूट शब्द ब्रज के कृषक उत्पादों की समृद्धि को दर्शाता है। अन्न यानि अनाज, कूट यानी पर्वत। गिर्राज पर्वत(गिरी कूट) भी अन्न के कूट से ढंक गया था। इसी समृद्धि का पर्व गोवर्धन पूजा या अन्नकूट के रूप में ब्रज में पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। वैसे ऐसा नहीं है कि दीपावली की रौनक और आतिशबाजी वगैरह यहां एकदम नहीं होते, होेते हंै लेकिन यह उन लोगों के यहां होते हैं जो मूलत: ब्रजवासी नहीं हैं, अर्थात जो कहीं और से आकर ब्रज में बस गए हंै। ब्रज में दीपावली की जो रौनक दिखती है वह इन्हीं लोगों के कारण है।
-विवेक दत्त मथुरिया
बचपन जीवन की सबसे स्वर्णिम अवस्था का नाम है। जाति-पांति, दीन-ईमान, अमीरी-गरीबी आदि की भावना से मुक्त। उसके दोस्त न हिंदू होते हैं, न मुसलमान। बस..दोस्त होते हैं। वे मंदिर-मस्जिद के विवाद से भी परे होते हैं। उनकी सबसे अनमोल थाती कांच की चूड़ियों के टुकड़े, ताश की गड्डी के पत्ते, कागज की पतंगें, कंचे, घिस कर चपटे किये गये पत्थर या ईंट के टुकड़े होते हैं। बचपन का यथार्थ चित्रण करते हुए प्रख्यात शायर स्व. सुरर्शन फाकिर ने कहा है कि ‘न दुनिया का गम था, न रिश्तों के बंधन। बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी...।’ लेकिन आज समां ही बदल गया है। बारिश आज भी पहले की तरह रिमझिम-रिमझिम होती है। लेकिन इस रिमझिम बारिश में बच्चे भीगते नहीं है। नालियों, गड्ढों और तालाबों में कागज की नाव बनाकर तैराने की फुरसत उनके पास नहीं है। वे एक मायावी दुनिया में जीने लगे हैं। यह मायावी दुनिया है इलेक्ट्रानिक खिलौनों, कंप्यूटर और वीडियो गेम्स की। इस मायावी दुनिया ने उनका बचपन छीन लिया। बच्चों में आप पहले जैसी मासूमियत और अबोधता देखने को नहीं मिलती। आज दिशाहीन विकास और आगे निकलने की आपाधापी में बचपन कहीं गुम सा हो गया है। आखिर इसके लिए दोषी सिर्फ हम सब हैं। हम सब क ौन? वे अभिभावक जो अभिजात्यता के मद में बच्चों को अपनी जागीर समझने लगे हैं।आज बच्चों की अभिरुचि में खतरनाक बदलाब देखने को मिल रहे हैं। कभी मेले में वंशी के लिए रोने-बिलखने वाला बचपन आज खिलौना पिस्तौल और बंदूक के लिए हठ करता है। सृजनात्मक अभिरुचि आज विध्वंसक प्रवृत्ति में तब्दील हो गयी है। Ñअब गांवों-शहरों के बच्चों में पहले जैसा अल्हड़पन और धमाचौकड़ी की रुचि दिखायी नहीं देती। गांव, कस्बों व शहरों की गलियों और मैदानों में गिल्ली डंडा, अंटा गोली, चोर सिपाही, पोसम्पा भाई पोसम्पा....हरा समंदर गोपी चंदन, बोल मेरी मछली कितना पानी जैसे परंपरागत खेल बच्चे नहीं खेलते। पिछले दो दशक में सब कुछ इतना बदल गया है कि इन खेलों के बारे में आज के बच्चे जानते ही नहीं हैं।आखिर यह सब क्या है? कौन सा विकास और किसका विकास है? विकास की अंधी दौड़ ने बच्चों से उनकी सम्मोहक मुस्कान को छीन लिया है। बच्चे उम्र से पहले परिपक्व दिखायी देने लगे हैं, जो बाल मनोविज्ञान के अनुसार एक विकृति (एबनॉर्मलिटी) मानी गयी है। कभी बच्चे घर के अनुपयोगी कबाड़ से मोटरगाड़ी जैसे खिलौने बनाकर अपना मनोरंजन किया करते थे, लेकिन मां-बाप ऐसा करने को हेय समझते हैं।हंसता खेलता बचपन आज मां-बाप की दमित इच्छाओं के तले सिसक रहा है। हमें तो बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर, सीए या फिर किसी बहुराष्टÑीय कंपनी का आला अफसर जो बनाना है। उसकी रुचि, अभिरुचि और क्षमताओं को जाने बिना। भोर में नींद में अलसाये बच्चे को स्कूल भेजने की जबरदस्ती, स्कूल से लौटने पर होमवर्क, फिर ट्यूशन और लो हो गयी रात। बड़ा सवाल यह है कि हम बच्चों का बचपन छीनकर क्या हासिल कर लेंगे। क्या उनका वास्तव में सर्वागीण विकास कर रहे हैं? समाजशास्त्र की भाषा में इसे ‘सोशल क्राइम’की संज्ञा दी गयी है। यह दास्तान तो उन बच्चों की है जिनके मां-बाप की आमदनी का जरिया नौकरी, व्यापार या कोई अन्य रोजगार है।लेकिन इसका एक दूसरा भी पहलू है। उन बच्चों के बारे में सोचिए, जिनके मां-बाप को दो जून की रोटी के लिए चौबीस घंटे खटना पड़ता है। ऐसे परिवार के बच्चों को क्या खेलने का पर्याप्त अवसर मिलता है? नहीं, सुबह होते ही उनके हाथ में प्लास्टिक, कागज आदि बीनने का थैला पकड़ा दिया जाता है। या फिर ऐसे ही कामों में उन्हें जोत दिया जाता है। इनके लिए तो खेल और खिलौने कोई मायने नहीं रखते हैं।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

विजयादशमी दशहरा के पर्व को हम असत्य पर सत्य की जीत के रूप में मानते चले आ रहे है। यह सिर्फ एक परम्परा का मात्र निर्वहन है। राम-रावण के कथानक से जुडी इस परंपरा का हमारे जीवन का कोई सरोकार जुडा है ? ऐसा कुछ दूर - दूर तक कतई दिखाई नहीं देता। हकीकत तो ये है कि आज हमने राम को वनवास देकर अपने अन्दर रावण को जो बसा लिया है। रावण के पास अहंकार के कई आधार थे। हम दरिद्रियों के पास तो अहंकार की कोई वाजिब बुनियाद भी नहीं है। फिर इस मूर्खता की वजह क्या है? हम अहंकार के स्तर पर भी टुच्चे बने हुए है। चौतरफा अमानवीय वातावरण हमारे टुच्चेपन की तस्दीक कर रहा है।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

pra




शनिवार, 17 जुलाई 2010

अब तक सुना था कि विद्या विनय सिखाती है। लेकिन मौजूदा समय में यह बात पलट चुकी है। आज की विद्या भ्रष्ट बनाती है। ऐसे प्रमाणों से रोज अखबार भरे रहते है। देश में जितने भी बड़े घोटाले अब तक हुए है , उन सब में उच्च शिक्षा प्राप्त लोगो का ही बोलबाला देखा और पाया गया है। नौकरशाही का भ्रष्ट चरित्र किसी से छुपा नहीं है। भ्रष्ट नौकरशाही के आगे समूची व्यवस्था नतमस्तक है। अपने को आला दर्जे का शिक्षित और समाज व् व्यवस्था का मसीहा कहने वाले पत्रकार भी भ्रष्टाचार की बहती गंगा में हाथ धोने से अब पीछे नहीं रहते। अब बात करें डॉक्टरों की तो यह वर्ग भी समाज में अपना सम्मान को चुका है। अब डॉक्टरों की नजर मर्ज पर नहीं मरीज की जेब पर रहती है। आज डॉक्टर धन के लिए भय के मनोविज्ञान का सहारा लेते है।
सरस्वती के उपासक और राष्ट्र निर्माता कहे जाने वाला शिक्षक वर्ग लक्ष्मी की परम साधना में रत देखा जा सकता है। अगर नेताओं की बात करें तो वे परम शिक्षित की श्रेणी में आते है। क्योंकि उनके पास वह दिव्य ज्ञान है जिसके द्वारा भ्रष्टाचार की संस्कृति अनवरत प्रगति के पथ पर नित नए कीर्तिमान स्थापित कर राही है। सत्य ओर ईमान की बात करने वालो को आज भी सुकरात की तरह जहर का प्याला पिने को मजबूर है या फिर हरिश्चन्द्र की तरह अपनी औलाद के लिए दो गज कफन के लिए भी बेबस है।
आज अपने को शिक्षित कहने वाला प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्टाचार को किसी न किसी रूप में मान्यता दे रहा है । भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी निर्णायक संघर्ष तबतक परवान नहीं चढ़ सकता,जबतक जात और धर्म के नाम पर खांचों में विभक्त रहिंगे। भ्रष्टाचार का सीधा और सपाट अर्थ है भ्रष्टा का अचार यानि टट्टी .

रविवार, 11 जुलाई 2010

महंगाई क्या है ? चुनावी लंगरों की हलुआ,पूरी का हिसाब है। जिसके लिए नेता जी को और उनकी पार्टी को मजबूरन व्यापारी और उद्योगपतियों से आर्थिक सहयोग लेना पड़ा। यह महंगाई कुछ और नहीं कार्यकर्ताओं की चुनावी हलुआ, पूरी की ब्याज सहित वापसी है। इसे ही सरकारी कृतज्ञता कहते है।
चुनावों में न जनता लंगर खाती और न महंगाई बढ़त। महंगाई के लिए सीधे तौर पर जनता ही दोषी है। आखिर सहयोग के लिए कृतज्ञता प्रकट करना किसी भी द्रष्टि से गलत नहीं है। जब उन्होंने चुनाव जैसे संघर्ष के बुरे वक्त में साथ दिया तो अब सत्ता सुख में उन्हें कैसे भूल जाएँ , यह पूरी तरह सामाजिक और मानवीय व्यवहार के खिलाफ होगा।
अगर व्यापारी और उद्योगपति चुनावी सहयोग से अपना हाथ खीच लें तो लोकतंत्र का चुनावी महापर्व ऐसा लगेगा जैसे हम लोकतंत्र का मर्सिया पढ़ रहे हों।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

क्यों चिल्लाते हो ?
चहु ओर भ्रष्टाचार है
यह ड्रामा है या सच्चाई ?
तुम्हारी परिभाषा अजीब है
काम हो जाये तो सब ठीक,
नहीं तो भ्रष्टाचार ।
अरे! तुम तो बुद्धिजीवी हो ,तीसमारखां हो
समाज के नेतृत्वकर्ता हो ।
दो अपने चिंतन को
क्रांतिकारी आयाम
क्यों दोगे ?
अरे! सब जानते हैं
कोठी किसकी ?
त्यागी जी की
आवाज कहाँ से ?
मौनी बाबा के आश्रम से
बच्चे किसके ?
ब्रह्मचारी जी के

मंगलवार, 29 जून 2010

किसी ने मुझसे पूछा-
मेरे देश की संसद कैसी है
मैंने कहा-एक दम गोल,
शून्य के जैसी है ।

सोमवार, 28 जून 2010

धर्म यानि कल्याण। हाँ ,यही सारभूत अर्थ है धर्म का। घर्म के इस आशय से शायद ही किसी कि असहमति हो। धर्म मनुष्य के जीवन पथ पर उस फल व् छायादार वृक्ष की तरह है जो जीवन संघर्ष से थके मनुष्य को आश्रय देता है और फिर आगे बढ़ने की ऊर्जा प्रदान करता है। इसलिए हमारे धर्म को सनातन धर्म कहा गया है। भारतीय सनातन धर्म की बुनियाद त्याग, तपस्या और सेवा जैसे सनातन तत्वों पर टिकी है। लेकिन वर्तमान भौतिकता का प्रभाव इसे खंडित करता नजर आ रहा है। धर्म उस कला या विद्या का नाम है, जिसकी प्राप्ति होने पर व्यक्ति उस आनंद का अधिकारी हो जाता है, जिसको वाणी से व्यक्त करना संभव नहीं है। यह अवस्था त्याग, तपस्या और सेवा जैसी साधना से प्राप्त होती है। लेकिन मौजूदा दौर में धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह क्षोभ को ही विस्तार दे रहा है। आज धर्म के नाम पर एश्वर्य का अपना-अपना साम्राज्य देखा जा सकता है, जिसमे आभाव ग्रस्त लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। आज धर्म के क्षेत्र में उन सभी गलत चीजों के दर्शन किये जा है जो राजनीति और व्यापार जैसे क्षेत्रों में जायज करार दी जाती है। जंहा नीति और नैतिकता की बातें करना मूर्खता के आलावा कुछ भी नहीं है। वर्तमान में राजनीति, व्यापार धर्म का गहरा गठजोड़ देश की भोली-भाली जनता को बरगला कर अपने हितों की पूर्ति करने में जुटा है। साधु सन्यासियों के भेष में छुपे भेडियों के कुकर्मों की कहानी अब किसी से छुपी नहीं है और न ही आश्चर्य उत्पन करती है। आज धर्म मानव कल्याण के सरोकार से भटका हुआ है। आज परमार्थ जैसी बातें सिर्फ प्रचार, चंदा। चढ़ावा भेंट और दान के लिए बढे ही तकनिकी ढंग से प्रयोग की जाती है। धर्म क्षेत्र से जुडी इस तरह की प्रवत्तियों ने धर्म को और संधिगता के मुहाने पर ला खड़ा है इतने पर भी धर्म के ध्वजवाहक मठाधीशों का चिर मौन उनके चरित्र पर भी उसी तरह का सवालियां निशान लगता है।

जब से कोठियों में चलने लगे हैं कोठे ।

तब से वैश्याएँ बेरोजगार हो गयी ॥

हाट लगा है धर्म का, भक्त जनन को छूट ।
जान माल सब है यहा रे लूट सके तो लूट ॥

मंगलवार, 15 जून 2010


दादू दावा मत करे, बिन दावे दिन काट ।
कितने ही सोदा कर गए , ये सोदा गर की हाट॥

Unordered List

Sample Text

Blog Archive

Popular Posts

Text Widget