बुधवार, 2 दिसंबर 2015

अतुल्य भारत का सत्य 

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

भगत सिंह को माना, पर जाना नहीं

विवेक दत्त मथुरिया
आज तरक्की की हवाई बातों के बीच देश आज भी  सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषमता को बोझ तले दबा है। उत्पीड़न, अन्याय और शोषण के जमीनी सच को हमारे सियासदां स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। आज देश में जिस तरह की आर्थिक नीतियों से सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति को संरक्षण प्रदान किया जा रहा है, वह पूरी तरह साम्राज्यवाद का ही बदला हुआ नया चेहरा है, जिसकों भूमंडलीकरण का नाम दिया गया है। इस भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों में आर्थिक सुधार के नाम पर बुनियादी हकों से वंचित लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। तब ऐसे में शहीद-ए- आजम भगत सिंह के विचार मुखर हो उठते हैं। विडंबना तो इस बात की है कि अपनी फैशनेबल देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए देश का मध्यवर्ग क्रांतिकारियों के प्रति अपनी कृतज्ञता तो दिखाता है, पर उनके विचारों से उसका दूर-दूर तक सरोकार नहीं है। सवाल इस बात का है कि क्या हमने कभी भगत सिंह के विचार और सरोकारों को समझने की कोशिश की है? शायद नहीं, इन सब बातों के लिए यहां अवकाश किस के पास है। मध्यवर्ग आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का वर्ग हे न कि आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के लिए संघर्ष का। भगत सिंह की दरकार तो है पर पड़ोसी के घर में अपने घर तो कोई हर्षद मेहता या तेलगी जन्म ले। आज की पीढ़ी शहीद भगत सिंह के बारे में मोटे तौर पर बस इतना ही जानती और समझती है कि भगत सिंह ने देश को ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। हमारी मौजूदा युवा पीढ़ी भगत सिंह के राजनीतिक और सामाजिक विचारों से पूरी तरह अनिभिज्ञ है। आजादी के बाद एक सोची समझी राजनीतिक साजिश के तहत भगत सिंह के राजनीतिक विचारों से जनता को दूर रखा गया। क्योंकि भगत सिंह ने आजाद भारत में समाजवादी शासन का स्वप्न अपनी आंखों में पाल रखा था। महात्मा गांधी को छोड़कर अधिकांश क्रांतिकारी भगत सिंह के इस राजनीतिक विचार से पूर्ण सहमति रखते थे। 23 साल के युवा भगत सिंहं की  वैचारिक परिपक्वता और प्रतिबद्धता लाजवाब थी। भगत सिह ने क्रांति की सुसंगत परिभाषा गढ़ी। क्रांति की वैचारिक धार को विस्तार देने के लिए अपने जीवन बलिदान को माध्यम बनाया। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आजादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। भगत सिंह के जन्म की तारीख को लेकर मतभेद है। कुछ लोग 27 और कुछ लोग 28 सितंबर मानते हैं।  सन्  1907 को लायलपुर जिÞले के बंगा में (अब पाकिस्तान में) हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनका पैतृक गांव खटकड़ कलां है जो पंजाब, भारत में है।  भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्याधिक प्रभावित रहे। भगत सिंह की चेतना की गहनता को उनके एक लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ से समझा जाा सकता है। यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार ‘द पीपुल’ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ-साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। भगत सिंह ने अपने लेख सवाल करते हुए कहा है- ‘मैं पूछता हूं तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल संपूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूं कि वह लागू करे। जहां तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध ‘एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण’ सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है?’ भगत सिंह के इन विचारों में मानवता की श्रेष्ठता की स्थापना की अवधारणा को समझा जा सकता है।

रविवार, 20 सितंबर 2015

श्रीराधा सर्वेश्वरी अलबेली सरकार विवेक दत्त मथुरिया

प्रेम जीवन का सबसे रहस्यमय गोपनीयतत्व होता है। प्रेम की गोपीनीयता का आधार दो लोगों की आत्मीयता का चरम लक्ष्य है। क्योंकि उसकी रसात्मक भाव स्थिति वर्णनातीत ही रहती है। श्रीराधा को श्रीकृष्ण की आराध्या,प्राणबल्लभा, प्राणल्हादिनी, प्राण मंजूषा और न जाने अन्ययता के अनेकानेक विश्लेषणों से विभूषित किया गया है। राधा-कृष्ण की इस अन्ययता का सीधा और सरल भाव यह है कि एक ही तत्व के दो भाग यानी दोनों शरीरों में एक ही आत्मा विराजमान है। राधाकृष्ण की इस रूहानी एकात्मकता के लिए कहा जाता है कि ‘राधा कृष्ण सनेही एक प्राण दो देही।’  प्रेम अपने चरम भाव स्थिति में एक प्राण हो जाता है। जीव और परमात्मा के मिलन से जुड़ी योग की समाधि अवस्था का परम लक्ष्य भी यही होता है। ब्रज गोपियों के इसी प्रेम योग से ब्रह्मज्ञानी उद्धव का हठयोग खंड खंडित हो गया। सवाल इस बात का है कि अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से श्रीकृष्ण ही कठिन और गूढ़ तत्व हैं, तब राधातत्व को समझने की कामना करना कैसे संभव हो सकता है। त्याग प्रेम की कसौटी है। राधा-कृष्ण का विछोह उनकी इसी आत्मिक एकरूपता की पुष्टि करता है। राधा के लोक कल्याण की प्रेम प्रेरणा के लिए श्रीकृष्ण द्वारा ब्रज तजने से दोनों के बीच की विरह स्थिति के महाभाव का वर्णन शब्दों में संभव नहीं है। लोक कल्याण के लिए दोनों का यह विछोह उनके प्रेम को अलौकिक और वंदनीय बनाता है।  राधा कृष्ण यह विछोह प्रेम प्रेरणा और त्याग की शक्ति को सिद्ध करता है। श्रीकृष्ण का संपूर्ण संघर्षमय जीवन राधातत्व से अभिभूत है। श्रीकृष्ण तो राधा के लोक कल्याण की कामना के कार्यकारी हैं, क्योंकि राधा ही ब्रज की अधिष्ठात्री हैं। कृष्ण के लोक कल्याण के संघर्ष में राधा के प्रेम की इच्छा का समझा जा सकता है और इसीलिए राधा सर्वेश्वरी अलबेली सरकार हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन का रोजनामचा मिलता है और राधा के शेष जीवन की क्रियाओं से लोग अनिभिज्ञ ही हैं। भारतीय धर्म, अध्यात्म की सनातन परंपरा गूढ़ रहस्यों से भरी हुई है। जिसको जितना समझ में आया उसने उतना अभिव्यक्त कर दिया। इसी गूढ़ रहस्य परंपरा का गोपनीय तत्व है श्रीराधा। श्रीराधा के अस्तित्व को लेकर विद्वानों में एक राय नहीं रही है। कोई राधा को आधुनिक काल की कल्पना मानता है तो कोई भक्त कवियों के मन की प्रेमातुर भाव स्थिति। श्रीमद्भागवत में भी राधा को लेकर गोपनीयता देखने को मिलती है। अगर वेद (श्रुति ) को देखें तो राधातत्व का जो उल्लेख मिलता है , वह इस रूप में है:  इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण :(ऋग्वेद 3. 51. 10) ओ राधापति श्रीकृष्ण! जैसे गोपियां तुम्हें भजती हैं वेद मंत्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो। राधोपनिषद में श्रीराधा के 28 नामों का उल्लेख है। गोपी, रमा तथा ‘श्री’ राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत के अलावा 17 और पुराण रचे हैं इनमें से छ: में श्री राधा का उल्लेख है। यथा राधा प्रिया विष्णो: (पद्म पुराण) राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण) तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण) रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मतस्य पुराण13. 37) राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित: (देवी भागवत पुराण)  श्रीमद्भागवत में राधा नाम की गोपनीयता से जुड़ा दृष्टांत का जिक्र विद्वान और मर्मज्ञ कुछ इस तरह करते हैं कि परमहंस शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को  भागवत कथा  सुनाई थी। शुकदेव जी श्रीराधे के चिरंतन सहचर हैं।लीला शुक हैं। शुकदेव जो गौलोक में जहां श्रीराधे निवास करती हैं अत्युत्तम बातें सुनाया करते हैं।    राधा रानी के प्रति उनका अनन्य प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि एक मर्तबा  राधा नाम मुख से लेने पर वह छ: माह के लिए समाधिस्थ हो जाते। परीक्षित को सात दिनों के बाद सर्प दंश की लपेट में आना ही था शापित थे इसीलिए वह सीधे-सीधे राधा नाम अपने मुख से नहीं लेते हैं बल्कि उसके पर्यायवाचियों का उच्चारण करते हैं। 
 आधुनिक काल में राधा की प्रेम भक्ति को विस्तार देने का श्रेय ब्रजोद्धारक, ब्रजयात्रा प्रर्वतक, रासलीला अनुकरण के आविष्कारक और बरसाना में श्रीराधा प्राकट्यकर्ता ब्रजाचार्य महाप्रभु श्रील् नारायण भट्ट जी को जाता है। जिन्होंने विलुप्त ब्रज की पुनरस्थापना के साथ बरसाना में राधाजी का प्राकट्य कर तत्कालीन राजा, महाराजाओं से मंदिर की स्थापना कराई और बेटी स्वरूप में राधाजी को लाड़ो का संबोधन देकर पिता-पुत्री के अनन्य भाव से भक्ति की। नारायण भट्ट जी का यह भागीरथी प्रयास आज राधे-राधे नाम की गूंज में चहुंओर सुनाई दे रहा है। राधा तत्व की गूढ़ता और रहस्य को सार रूप में इतना ही समझा जा सकता है कि आदि शंकराचार्य ने राधाजी की स्तुति करते हुए बस यही कामना की है कि: 
 कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

नेता, बाबा और बुद्धिजीवी 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

तू प्यार का सागर है...

अथ जुमला कथा

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

प्याज न हुई सेलिब्रिटी हो गई  ...

प्याज या सेलिब्रिटी 

प्याज न हुई सेलिब्रिटी हो गई 

बुधवार, 29 जुलाई 2015

हिन्दुस्तानियत के सच्चे ‘कलाम’


मंगलवार, 28 जुलाई 2015

लोकतंत्र पस्त, लुक्कातंत्र मस्त


मंगलवार, 30 जून 2015

‘राजधर्म’ के निर्वहन की चुनौती


गुरुवार, 26 मार्च 2015

कोई नहीं सुनता मेरे मन की बात 

गुरुवार, 19 मार्च 2015

 उदारीकरण की छटा 


सोमवार, 2 मार्च 2015

‘अच्छे दिन’ के वादे ने मार डाला 


शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

जो दिल्ली चाहती है, वही देश चाहता है 
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विवेक दत्त मथुरिया

दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटों पर अप्रत्याशित जीत दर्ज कर एक बार फिर सियाती पंडितों के विश्लेषण और चुनावी सर्वेक्षणों को ध्वस्त कर दिखाया है। जब बात दिल्ली के दिल से निकली है तो दूर तक जाएगी, क्योंकि दिल्ली देश का दिल जो है। भारत विजय पर निकला भाजपा के रथ का पहिया दिल्ली में जाकर रूक गया है। और इस रथ को रोका है बाल्यावस्था की पार्टी ‘आप’ ने । केजरीवाल की दूसरी बार आशातीत जीत ने राजनीति के लिए गहरे संदेश दिए हैं। यह राजनीतिक और सत्ता के अहंकार के खिलाफ खुला जनादेश है। दिल्ली में केजरीवाल की अप्रत्याशित वापसी झूठे वादों की राजनीति के खिलाफ सीधे तौर पर गुस्से का इजहार माना जाना चाहिए। दूसरी ओर भाजपा की अप्रत्याशित हार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार के रूप में विश्लेषित किया जा रहा है। अन्ना हजारे ने इसे मोदी की हार करार दिया है। भाजपा और मोदी की इस हार के विश्लेषण के बुनियादी आधार जो हैं। लोकसभा चुनाव की तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में जताया कि ये दिल मांगे मोर। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड की सत्ता पर काबिज होने और जम्मू-कश्मीर में उसके मुहाने पर खड़ी भाजपा के स्टार प्रचारक के तौर प्रधानमंत्री ने कहा, जो देश चाहता है-वही दिल्ली चाहती है। अब भाजपा और मोदी को दिल्ली की के संदेश को समझना होगा कि जो दिल्ली चाहती है, वही देश चाहता है। क्योंकि दिल्ली राजनीतिक स्तर पर समूचे भारत का प्रतिनिधित्व करती है और वह अपनी बसावट और सामाजिक संरचना की दृष्टि से लघु भारत का रूप भी है। हर वर्ग, हर महजब, गरीब, अमीर सब का मिश्रण है दिल्ली। ‘आप ’की जीत सियासत में कायम यथास्थितिवाद के खिलाफ जनता का खुला जनादेश है। ‘आप’ की जीत ने राजनीतिक पंडितों को अपने विश्लेषण के तौर-तरीकों पर नए सिरे से सोचने का मजबूर कर दिया है। दिल्ली की जनता ने इस बार ‘आप’ को जिस तरह का जनादेश दिया है, वह राजनीतिक वादा खिलाफी के विरोध में दबा हुआ क्षोभ और अक्रोश है। दिल्ली के यह प्रत्याशित परिणाम देश की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डालने वाले हैं। दिल्ली चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि जाति और धर्म की राजनीति से इतर जाकर उसने मुद्दा आधारित राजनीति के एजेंडे की दिशा में बड़ी पहल की है। इस मकसद में अरविंद केजरीवाल पूरी तरह सफल हुए हैं। यही लोकतांत्रिक राजनीति का साध्य भी है। दिल्ली जनादेश को इस रूप में भी समझना होगा कि जनता साख आधारित राजनीति के लिए अपना मानस बनाती जा रही है। राजनीति को लेकर इस बदलाव के संकेतों के पीछे जो अहम वजह नजर आ रही है, वह यह है कि उदारवादवादी नीतियों ने सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों को बढ़ाने का ही काम किया है। इन विसंगतियों से मध्यवर्ग और गरीब तबका महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा के सवालों पर हर रोज और हर पल दो चार हो रहा है। मोदी सरकार की नीति और निर्णयों में कॉरपोरेट घरानों की चिंताओं के समाधान परलक्षित होने लगे। भूमि अधिग्रहण कानून में जिस तरह संशोधन कर अध्यादेश के रूप में थोपने की जो कोशिश की गई वह उसने मोदी सरकार की किसान विरोधी छवि को ही गढ़ने का काम किया। अदाणी और अंबानी का नाम मोदी से जुड़ा होना भी कम से कम आम जनता को कतई रास नहीं आ रहा था। कालेधन और भ्रष्टाचार के सवाल पर मोदी सरकार कांग्रेस की तरह बैकफुट ही दिखाई दी। काम से ज्यादा बातों का होना। अपने को नसीब वाला बाताना। केजरीवाल के मुकाबले पैरासूट से किरण बेदी का उतारना। ओबामा की मेजबानी में दस लाख का सूट पहनना। इन सभी बातों का जनता की नजर में नकारात्मक संदेश गया। केजरीवाल के खिलाफ जिस तरह मोदी और अमित शाह ने सरकार और संगठन की पूरी ताकत झौंक दी उसने केजरीवाल के प्रति लोगों की सहानभूति बढ़ाने का काम ही किया। केजरीवाल की सबसे बड़ी विशेषता यह भी देखने को मिलती है कि  अतीत की गल्तियों के प्रति स्वीकार्यता और उन गल्तियों को लेकर जनता से क्षमा प्रार्थना करना, जो प्राय: अन्य राजनीतिक दलों में देखने को नहीं मिलती। उन सबकों के आलोक में नई प्रभावशाली रणनीति के साथ उतरने और प्रतिरोध करने और प्रतिरोध सहने का धैर्य और कार्यकर्ताओं के जज्बे को कायम रखना केजरीवाल को एक मजबूत नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित करती हैं। अपनी बात कहने के स्वर और बॉडी लैंग्वेज में लोगों को अपना भरोसा और अक्स दिखाई दिया। एक बात और समझने वाली जन लोकपाल आंदोलन के दौरान कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक पार्टिया केजरीवाल पर हमला कर चुकी थी। उस वक्त यह केजरीवाल की रणनीतिक सफलता थी, जो उनके लिए फायदे का ही सौदा साबित हुई। दिल्ली की जीत ने केजरीवाल को आधुनिक भारतीय राजनीति के नेता के रूप में नहीं बल्कि आम आदमी के नायक के रूप भरोसा जताया है। आने वाले समय में अब देखने वाली यह होगी कि जनता के इस भरोसे को कहां तक और कब तक बनाए रख पाएंगे .

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

राजनीति का छोटा भीम ‘आप’


शुक्रवार, 9 जनवरी 2015


शनिवार, 3 जनवरी 2015

क्त है आतंक के खिलाफ एकता का संदेश देने का
विवेक दत्त मथुरिया
कूटिनीति के प्रख्यात आचार्य चाणक्य ने कहा था कि किसी भी राज्यव्यवस्था का कर्तव्य, आक्रमण से अपनी प्रजा की रक्षा करना होता है। प्रजा का सुख ही राजा का सुख और प्रजा का हित ही राजा का हित । प्रजा के सुख और हित को दो स्थानों से खतरा होता है।  पहला बाह्य शत्रु का है, तो दूसरा राज्य के अंदर मौजूद शत्रु का। यही बात आज की आधुनिक और प्रगतिशील लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी लागू होती है। हमारा देश इन दोनों ही शत्रुओं से मुकाबला कर रहा है। बाह्य खतरा प्रायोजित आतंकवाद का तो आंतरिक खतरा अलगाववाद का बना हुआ है। दो स्तरीय आतंकवाद की समस्या में अटका देश, चाहकर भी समृद्धि के पथ पर उस गति से नहीं चल पा रहा, जितना उसको चलना चाहिए । प्रयोजित बाह्य आतंकवाद के लिए हमें खुफिया और सुरक्षा तंत्र को नई अत्याधुनिक तकनीकी और रणनीति से सुसज्जित करना होगा। दुनिया भर में हो रही आतंकी घटनाओं का समाजशास्त्रीय मनोवैज्ञानिक और तकनीकि अध्ययन और प्राप्त खुफिया जानकारियों के विश्लेषण के आधार पर माकूल जवाब की रणनीति तैयार रहनी चाहिए। अक्सर देखा गया है कि आतंकी वारदात होने के बाद एकाएक सक्रियता दिखाई देती और कुछ समय बाद हमारी खुफिया और सुरक्षा एजेंयिां निष्क्रिय सी प्रतीत होने लगती है। यह समझने वाली बात है कि आतंकी हमारी सक्रियता और निष्क्रियता पर नजर रखकर ही अपने काम का अंजाम देते हैं। 26/11 का मुुंबई हमला हमारी चूक का ही परिणाम था। उसके बाद भी देश के अन्य शहरों पर विस्फोट की घटनाएं हुई हैं, जो हमारी खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की लापरवाही या कामकाज के परंपरागत ढर्रे को दर्शाती है। ईराक में आइएस के आतंक के बाद चुनौतियां बढ़ी ही हैं। बेगलुरू और मुंबई से पकड़े गए युवकों के आइएस के साथ संबंध होने के खुलासों ने चिंता बढ़ाई है। भारत के मोस्टवांटेड दाऊद इब्राहिम के नेटवर्क की मुंबई से लेकर आजमगण तक गहरी जड़े किसी से छिपी नहीं हैं। यही नेटवर्क अपने मकसद के लिए देश के अंदर सियासी संरक्षण प्राप्त कर आंतकवादियों के लिए सीलपर मॉड्यूल तैयार करता है। आतंकवाद के लिए देश के अंदर सहायक तत्वों को ईमानदारी से चिह्नित कर कड़ी कार्रवाई करनी होगी,जिसके लिए ईमानदार अफसरों को आगे लाना होगा, यह सबसे ज्यादा जरूरी बात है। आतंकवादी खतरों को लेकर राज्यों की पुलिस का रवैया लापरवाही वाला है, जिसका पूरा लाभ आतंकी उठाते भी हैं। पुलिस का कार्य-व्यवहार और बातचीत की शैली जनसामान्य से दूरी बनाने का काम करती है। आतंकवाद से मुकाबले के लिए नागरिक सहयोग और सक्रियता अपेक्षित है। इसे लेकर भी केंद्र और राज्य सरकारों को रणनीतिक स्तर पर सोचना होगा। विकास और समृद्धि के लिए आतंक से मुक्ति पहली शर्त है। सबको मिलकर लड़ना होगा। देश की सुरक्षा के लिए यह नागरिक कर्तव्यों के निर्वहन का भी वक्त है। सियासत को भी चाहिए कि वह देश को धर्म और जाति के सियासी मसलों में उलझाकर आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा न करे। इस तरह की छुद्र सियासत को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। सबको मिलकर एकता का संदेश देना ही होगा।

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