रविवार, 20 सितंबर 2015

श्रीराधा सर्वेश्वरी अलबेली सरकार विवेक दत्त मथुरिया

प्रेम जीवन का सबसे रहस्यमय गोपनीयतत्व होता है। प्रेम की गोपीनीयता का आधार दो लोगों की आत्मीयता का चरम लक्ष्य है। क्योंकि उसकी रसात्मक भाव स्थिति वर्णनातीत ही रहती है। श्रीराधा को श्रीकृष्ण की आराध्या,प्राणबल्लभा, प्राणल्हादिनी, प्राण मंजूषा और न जाने अन्ययता के अनेकानेक विश्लेषणों से विभूषित किया गया है। राधा-कृष्ण की इस अन्ययता का सीधा और सरल भाव यह है कि एक ही तत्व के दो भाग यानी दोनों शरीरों में एक ही आत्मा विराजमान है। राधाकृष्ण की इस रूहानी एकात्मकता के लिए कहा जाता है कि ‘राधा कृष्ण सनेही एक प्राण दो देही।’  प्रेम अपने चरम भाव स्थिति में एक प्राण हो जाता है। जीव और परमात्मा के मिलन से जुड़ी योग की समाधि अवस्था का परम लक्ष्य भी यही होता है। ब्रज गोपियों के इसी प्रेम योग से ब्रह्मज्ञानी उद्धव का हठयोग खंड खंडित हो गया। सवाल इस बात का है कि अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से श्रीकृष्ण ही कठिन और गूढ़ तत्व हैं, तब राधातत्व को समझने की कामना करना कैसे संभव हो सकता है। त्याग प्रेम की कसौटी है। राधा-कृष्ण का विछोह उनकी इसी आत्मिक एकरूपता की पुष्टि करता है। राधा के लोक कल्याण की प्रेम प्रेरणा के लिए श्रीकृष्ण द्वारा ब्रज तजने से दोनों के बीच की विरह स्थिति के महाभाव का वर्णन शब्दों में संभव नहीं है। लोक कल्याण के लिए दोनों का यह विछोह उनके प्रेम को अलौकिक और वंदनीय बनाता है।  राधा कृष्ण यह विछोह प्रेम प्रेरणा और त्याग की शक्ति को सिद्ध करता है। श्रीकृष्ण का संपूर्ण संघर्षमय जीवन राधातत्व से अभिभूत है। श्रीकृष्ण तो राधा के लोक कल्याण की कामना के कार्यकारी हैं, क्योंकि राधा ही ब्रज की अधिष्ठात्री हैं। कृष्ण के लोक कल्याण के संघर्ष में राधा के प्रेम की इच्छा का समझा जा सकता है और इसीलिए राधा सर्वेश्वरी अलबेली सरकार हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन का रोजनामचा मिलता है और राधा के शेष जीवन की क्रियाओं से लोग अनिभिज्ञ ही हैं। भारतीय धर्म, अध्यात्म की सनातन परंपरा गूढ़ रहस्यों से भरी हुई है। जिसको जितना समझ में आया उसने उतना अभिव्यक्त कर दिया। इसी गूढ़ रहस्य परंपरा का गोपनीय तत्व है श्रीराधा। श्रीराधा के अस्तित्व को लेकर विद्वानों में एक राय नहीं रही है। कोई राधा को आधुनिक काल की कल्पना मानता है तो कोई भक्त कवियों के मन की प्रेमातुर भाव स्थिति। श्रीमद्भागवत में भी राधा को लेकर गोपनीयता देखने को मिलती है। अगर वेद (श्रुति ) को देखें तो राधातत्व का जो उल्लेख मिलता है , वह इस रूप में है:  इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण :(ऋग्वेद 3. 51. 10) ओ राधापति श्रीकृष्ण! जैसे गोपियां तुम्हें भजती हैं वेद मंत्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो। राधोपनिषद में श्रीराधा के 28 नामों का उल्लेख है। गोपी, रमा तथा ‘श्री’ राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत के अलावा 17 और पुराण रचे हैं इनमें से छ: में श्री राधा का उल्लेख है। यथा राधा प्रिया विष्णो: (पद्म पुराण) राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण) तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण) रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मतस्य पुराण13. 37) राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित: (देवी भागवत पुराण)  श्रीमद्भागवत में राधा नाम की गोपनीयता से जुड़ा दृष्टांत का जिक्र विद्वान और मर्मज्ञ कुछ इस तरह करते हैं कि परमहंस शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को  भागवत कथा  सुनाई थी। शुकदेव जी श्रीराधे के चिरंतन सहचर हैं।लीला शुक हैं। शुकदेव जो गौलोक में जहां श्रीराधे निवास करती हैं अत्युत्तम बातें सुनाया करते हैं।    राधा रानी के प्रति उनका अनन्य प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि एक मर्तबा  राधा नाम मुख से लेने पर वह छ: माह के लिए समाधिस्थ हो जाते। परीक्षित को सात दिनों के बाद सर्प दंश की लपेट में आना ही था शापित थे इसीलिए वह सीधे-सीधे राधा नाम अपने मुख से नहीं लेते हैं बल्कि उसके पर्यायवाचियों का उच्चारण करते हैं। 
 आधुनिक काल में राधा की प्रेम भक्ति को विस्तार देने का श्रेय ब्रजोद्धारक, ब्रजयात्रा प्रर्वतक, रासलीला अनुकरण के आविष्कारक और बरसाना में श्रीराधा प्राकट्यकर्ता ब्रजाचार्य महाप्रभु श्रील् नारायण भट्ट जी को जाता है। जिन्होंने विलुप्त ब्रज की पुनरस्थापना के साथ बरसाना में राधाजी का प्राकट्य कर तत्कालीन राजा, महाराजाओं से मंदिर की स्थापना कराई और बेटी स्वरूप में राधाजी को लाड़ो का संबोधन देकर पिता-पुत्री के अनन्य भाव से भक्ति की। नारायण भट्ट जी का यह भागीरथी प्रयास आज राधे-राधे नाम की गूंज में चहुंओर सुनाई दे रहा है। राधा तत्व की गूढ़ता और रहस्य को सार रूप में इतना ही समझा जा सकता है कि आदि शंकराचार्य ने राधाजी की स्तुति करते हुए बस यही कामना की है कि: 
 कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्।

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