शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

जो दिल्ली चाहती है, वही देश चाहता है 
-----------------------------------------------
विवेक दत्त मथुरिया

दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटों पर अप्रत्याशित जीत दर्ज कर एक बार फिर सियाती पंडितों के विश्लेषण और चुनावी सर्वेक्षणों को ध्वस्त कर दिखाया है। जब बात दिल्ली के दिल से निकली है तो दूर तक जाएगी, क्योंकि दिल्ली देश का दिल जो है। भारत विजय पर निकला भाजपा के रथ का पहिया दिल्ली में जाकर रूक गया है। और इस रथ को रोका है बाल्यावस्था की पार्टी ‘आप’ ने । केजरीवाल की दूसरी बार आशातीत जीत ने राजनीति के लिए गहरे संदेश दिए हैं। यह राजनीतिक और सत्ता के अहंकार के खिलाफ खुला जनादेश है। दिल्ली में केजरीवाल की अप्रत्याशित वापसी झूठे वादों की राजनीति के खिलाफ सीधे तौर पर गुस्से का इजहार माना जाना चाहिए। दूसरी ओर भाजपा की अप्रत्याशित हार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार के रूप में विश्लेषित किया जा रहा है। अन्ना हजारे ने इसे मोदी की हार करार दिया है। भाजपा और मोदी की इस हार के विश्लेषण के बुनियादी आधार जो हैं। लोकसभा चुनाव की तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में जताया कि ये दिल मांगे मोर। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड की सत्ता पर काबिज होने और जम्मू-कश्मीर में उसके मुहाने पर खड़ी भाजपा के स्टार प्रचारक के तौर प्रधानमंत्री ने कहा, जो देश चाहता है-वही दिल्ली चाहती है। अब भाजपा और मोदी को दिल्ली की के संदेश को समझना होगा कि जो दिल्ली चाहती है, वही देश चाहता है। क्योंकि दिल्ली राजनीतिक स्तर पर समूचे भारत का प्रतिनिधित्व करती है और वह अपनी बसावट और सामाजिक संरचना की दृष्टि से लघु भारत का रूप भी है। हर वर्ग, हर महजब, गरीब, अमीर सब का मिश्रण है दिल्ली। ‘आप ’की जीत सियासत में कायम यथास्थितिवाद के खिलाफ जनता का खुला जनादेश है। ‘आप’ की जीत ने राजनीतिक पंडितों को अपने विश्लेषण के तौर-तरीकों पर नए सिरे से सोचने का मजबूर कर दिया है। दिल्ली की जनता ने इस बार ‘आप’ को जिस तरह का जनादेश दिया है, वह राजनीतिक वादा खिलाफी के विरोध में दबा हुआ क्षोभ और अक्रोश है। दिल्ली के यह प्रत्याशित परिणाम देश की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव डालने वाले हैं। दिल्ली चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि जाति और धर्म की राजनीति से इतर जाकर उसने मुद्दा आधारित राजनीति के एजेंडे की दिशा में बड़ी पहल की है। इस मकसद में अरविंद केजरीवाल पूरी तरह सफल हुए हैं। यही लोकतांत्रिक राजनीति का साध्य भी है। दिल्ली जनादेश को इस रूप में भी समझना होगा कि जनता साख आधारित राजनीति के लिए अपना मानस बनाती जा रही है। राजनीति को लेकर इस बदलाव के संकेतों के पीछे जो अहम वजह नजर आ रही है, वह यह है कि उदारवादवादी नीतियों ने सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों को बढ़ाने का ही काम किया है। इन विसंगतियों से मध्यवर्ग और गरीब तबका महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा के सवालों पर हर रोज और हर पल दो चार हो रहा है। मोदी सरकार की नीति और निर्णयों में कॉरपोरेट घरानों की चिंताओं के समाधान परलक्षित होने लगे। भूमि अधिग्रहण कानून में जिस तरह संशोधन कर अध्यादेश के रूप में थोपने की जो कोशिश की गई वह उसने मोदी सरकार की किसान विरोधी छवि को ही गढ़ने का काम किया। अदाणी और अंबानी का नाम मोदी से जुड़ा होना भी कम से कम आम जनता को कतई रास नहीं आ रहा था। कालेधन और भ्रष्टाचार के सवाल पर मोदी सरकार कांग्रेस की तरह बैकफुट ही दिखाई दी। काम से ज्यादा बातों का होना। अपने को नसीब वाला बाताना। केजरीवाल के मुकाबले पैरासूट से किरण बेदी का उतारना। ओबामा की मेजबानी में दस लाख का सूट पहनना। इन सभी बातों का जनता की नजर में नकारात्मक संदेश गया। केजरीवाल के खिलाफ जिस तरह मोदी और अमित शाह ने सरकार और संगठन की पूरी ताकत झौंक दी उसने केजरीवाल के प्रति लोगों की सहानभूति बढ़ाने का काम ही किया। केजरीवाल की सबसे बड़ी विशेषता यह भी देखने को मिलती है कि  अतीत की गल्तियों के प्रति स्वीकार्यता और उन गल्तियों को लेकर जनता से क्षमा प्रार्थना करना, जो प्राय: अन्य राजनीतिक दलों में देखने को नहीं मिलती। उन सबकों के आलोक में नई प्रभावशाली रणनीति के साथ उतरने और प्रतिरोध करने और प्रतिरोध सहने का धैर्य और कार्यकर्ताओं के जज्बे को कायम रखना केजरीवाल को एक मजबूत नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित करती हैं। अपनी बात कहने के स्वर और बॉडी लैंग्वेज में लोगों को अपना भरोसा और अक्स दिखाई दिया। एक बात और समझने वाली जन लोकपाल आंदोलन के दौरान कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक पार्टिया केजरीवाल पर हमला कर चुकी थी। उस वक्त यह केजरीवाल की रणनीतिक सफलता थी, जो उनके लिए फायदे का ही सौदा साबित हुई। दिल्ली की जीत ने केजरीवाल को आधुनिक भारतीय राजनीति के नेता के रूप में नहीं बल्कि आम आदमी के नायक के रूप भरोसा जताया है। आने वाले समय में अब देखने वाली यह होगी कि जनता के इस भरोसे को कहां तक और कब तक बनाए रख पाएंगे .

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

राजनीति का छोटा भीम ‘आप’


Unordered List

Sample Text

Popular Posts

Text Widget