सोमवार, 28 मार्च 2011



भारतीय गणतंत्र अब पूरी तरह जनता के लिए एक षड़यंत्र बन चुका है। पूरा का पूरा देश षड़यंत्रों में फंसा नजर आ रहा है। आज देश में आये दिन होने वाले षड़यंत्र और घोटाले भारतीय गणतंत्र की पहचान बन चुके है। भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की अवैध संतान यानि दलाल लोक सेवकों के सहयोग से नित नये षड़यंत्रों द्वारा आम आदमी के उत्पीड़न और शोषण में लगे है और जनता को सरेआम दोनों हाथों से लूटने में लगे है। तिरंगे के बीच दिखायी देने वाला विकास का चक्र, दमन और शोषण का चक्र बन कर रह गया है।
हर कोई एक-दूसरे को नसीहत देने में लगा है। संवैधानिक संस्थाओं की जनता के प्रति किसी तरह की जबावदेही उनके क्रिया- कलापों में दिखायी नहीं दे रही है। संवैधानिक संस्थाओं के कर्ताधर्ता बेहतरीन कलाकार की तरह लोकतंत्र के रंगमंच पर व्यवस्था का स्वांग करने में लगे है। सार्वजनिक जीवन में आदमी के चारित्रिक पतन की यह करूण कथा इस बात की ताकीद है कि हम आजादी के छह दशक बाद भी लोकतंत्र का पहला सबक भी याद नहीं कर पाये। लोक सेवकों का कार्य व्यवहार पूरी तरह से गैर जिम्मेदाराना हो चुका है। अपनी निजी हित पूर्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते है। नौकरशाही पर न्यायपालिका और विधायका का अकुंश बेअसर दिखायी दे रहा है। परम स्वतंत्र सिर पर ना कोई वाली कहावत नौकरशाही पर लागू हो रही है।
कभी राष्टÑीय राजनीति का केन्द्र रहा उत्तर प्रदेश गत दो दशकों से अराजकता का दंश झेल रहा है। कानून-व्यवस्था की स्थिति की तुलना जंगल राज से करना ही ज्यादा समीचीनी होगा। इस प्रदेश की बद से बदतर हालात के लिए किसी एक दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए सभी दल समान रूप से दोषी है। आंज प्रदेश में शुचिता और शुभता के लिए कोई स्थान शेष नहीं है। मौका परस्ती यहां की राजनीति का आदर्श बन चुका है। चारों ओर प्रदेश में माफिया राज कायम है, जिसके आगे शासन और प्रशासन पानी भर रहे है। जमीनों के कारोबार से जुडेÞ आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का राजनीति में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप से सभी परिचित है।
नौरशाही स्थाई सरकार के रूप में सब पर भारी पड़ रही है।
जिले के राजा माने जाने वाले जिलाधिकारियों को अपने कार्यालयों में भ्रष्टाचार कतई दिखायी नहीं देता है। इस ना दिखने की बीमारी को सब जानते और समझते है। वही पुलिस कप्तानों को थानों में होने वाली मनमानी दिखायी नहीं देती है। पीड़ित न्याय की आस में आला अधिकारियों के दरों पर के चक्कर लगा-लगा कर थक कर अपने करम पर हाथ रख घर बैठ जाते है।
शासन की कल्याणकारी योजनाओं का जमा खर्च कमीशन में बंदर बांट हो जाता है या अपात्र लोग उसका लाभ लेते है। मनरेगा में का भ्रष्टाचार इसका जीता जागता प्रमाण है। गैस की कालाबाजारी, सार्वजनिक जमीनों पर अवैध कब्जे और अतिक्र मण आजादी का तराना गा रहे है। सड़कों पर चलने वाले डग्गेमार वाहन, सट्टे की खाईबाड़ी व अन्य गैर कानूनी धंधों से प्राप्त होने वाली ‘मंथली’ इलाकायी पुलिस की परंपरा में स्थायी आय का जरिया बन चुकी है। तब ऐसी स्थिति में पुलिस से शान्ति सुरक्षा की अपेक्षा करना अपने में एक दिवा स्वप्न से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इलाके के दलालों को थानों में संभ्रांत नागरिक का दर्जा मिला हुआ है।
देश और प्रदेश के इन हालातों पर मुझे अपनी स्वरचित कविता सटीक लगती है:
देश क्या है?
एक बाड़ा।
जनता क्या है?
भेड़।
शासन क्या है?
एक चरवाह।
और प्रशासन ?
चरवाहे के हाथ में लगी लाठी।
आजादी का मतलब ?
भेड़ की उन उतारना।
तो लोकतंत्र ?
एक पहेली या भेड़तंत्र...।

सोमवार, 21 मार्च 2011

हमारी संस्कृति और संस्कारों में यह सिखाया गया है कि व्यक्ति को उतना ही बोलना चाहिए जितना पालन कर सके, नहीं तो शब्दों की सार्थकता के साथ बोलने वाले की भी सार्थकता समाप्त हो जायेगी। कथनी और करनी की एकरूपता को हमारे यहां व्यक्ति के आचरण से जोड़ा गया है। जिसकी कथनी और करनी एक होती है उसे ईमानदार और श्रेष्ठ पुरूष की संज्ञा दी गयी है। वैसे भी दैनिक व्यवहार में एक दूसरे की बातों के आधार पर ही दैनिक कार्यों को संपादित करते है। हमारे शास्त्रों मे अक्षर को ब्रह्म माना गया है। अक्षर उसे कहा जाता है जिसका क्षरण यानि नष्ट न हो। अत: आपका कहा हुआ शब्द और वाक्य का अस्तित्व किसी न किसी रूप में जिन्दा रहता है। चाहे वो स्मृति के रूप में या फिर लिखे के रूप में।
किसी बात को कहना और कहे हुए का अनुपालन दोनों में अन्तर आ जाने पर व्यक्ति की साख प्रभावित होती है। आज के दौर में कहे हुए का अनुपालन करना सबसे बड़ा दुरूह और कठिन कार्य है। आदमी की बदलती व्यावसायिक सोच ने शब्दों की सार्थकता के लिए एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। हमारी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत ऐसे प्रमाणों से भरी पड़ी है कि जहां वचन के पालन के लिए लोगों ने कितने कष्ट सहकर अपनी वचन की सार्थकता को कायम रखा। लेकिन आज हर रोज शब्दों के साथ बलात्कार होते देखा जा सकता है।
शब्दों के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ हमारे सियासतदार कर रहे है। अपने को जनता का चौकीदार, पहरेदार कहने वाले हमारे भाग्य विधाता रहनुुमा चुनाव जीतने और सत्ता मिलने के साथ अपनी कहीं बात को या तो भूल जाते या फिर अपनी बात से मुकर जाते है। और उनको चुनने वाली जनता अपने ठगा सा महसूस करती है। इसलिए अब समाज में नेता शब्द की सार्थकता शनै: शनै: समाप्त हो रही है। आज नेता शब्द व्यंग और गाली के रूप मे अपना प्रभाव कायम करता जा रहा है। हमारे नामचीन व्यंगकार नेताओं को लेकर हर रोज पत्र-पत्रिकाओं में तीखें व्यंग लिखते है और कार्टूनिस्टों को कार्टून बनाने के लिए मसाला उपलब्ध कराते है।
यहां सबसे बड़ा सवाल इस बात का है कि विश्वास कायम करने के लिए अब शब्द कमजोर पड़ने लगे है। अविश्वास का प्रभाव इस वक्त सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्रों में देखने को हर रोज मिल रहा है।
शब्दों की घटती सार्थकता के लिए सबसे ज्यादा दोषी हमारे सियासी रहनुमा है। अपने छुद्र राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए समाज को बांटने के काम लगे है। नयी-नयी परिभाषा गढ़कर समाज में वैमनस्यता फै लाकर राजनीति को व्यापार की शक्ल दे रहे है। जो राजनीति जनता की सेवा और व्यवस्था संचालन का आधार थी, आज वह अपन बदले हुए रूप में जनता के शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार की ध्वज वाहक बन गयी है।
आज समाज में ज्यादातर लोग शब्दों का दुरुपयोग कर एक दूसरे को ठगने में लगे है। आज हर क्षेत्र में बढ़ती व्यावसायिकता ने शब्दों की सार्थकता का सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा कहे गये शब्दों के मायने क्या है?

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