सोमवार, 21 मार्च 2011

हमारी संस्कृति और संस्कारों में यह सिखाया गया है कि व्यक्ति को उतना ही बोलना चाहिए जितना पालन कर सके, नहीं तो शब्दों की सार्थकता के साथ बोलने वाले की भी सार्थकता समाप्त हो जायेगी। कथनी और करनी की एकरूपता को हमारे यहां व्यक्ति के आचरण से जोड़ा गया है। जिसकी कथनी और करनी एक होती है उसे ईमानदार और श्रेष्ठ पुरूष की संज्ञा दी गयी है। वैसे भी दैनिक व्यवहार में एक दूसरे की बातों के आधार पर ही दैनिक कार्यों को संपादित करते है। हमारे शास्त्रों मे अक्षर को ब्रह्म माना गया है। अक्षर उसे कहा जाता है जिसका क्षरण यानि नष्ट न हो। अत: आपका कहा हुआ शब्द और वाक्य का अस्तित्व किसी न किसी रूप में जिन्दा रहता है। चाहे वो स्मृति के रूप में या फिर लिखे के रूप में।
किसी बात को कहना और कहे हुए का अनुपालन दोनों में अन्तर आ जाने पर व्यक्ति की साख प्रभावित होती है। आज के दौर में कहे हुए का अनुपालन करना सबसे बड़ा दुरूह और कठिन कार्य है। आदमी की बदलती व्यावसायिक सोच ने शब्दों की सार्थकता के लिए एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। हमारी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत ऐसे प्रमाणों से भरी पड़ी है कि जहां वचन के पालन के लिए लोगों ने कितने कष्ट सहकर अपनी वचन की सार्थकता को कायम रखा। लेकिन आज हर रोज शब्दों के साथ बलात्कार होते देखा जा सकता है।
शब्दों के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ हमारे सियासतदार कर रहे है। अपने को जनता का चौकीदार, पहरेदार कहने वाले हमारे भाग्य विधाता रहनुुमा चुनाव जीतने और सत्ता मिलने के साथ अपनी कहीं बात को या तो भूल जाते या फिर अपनी बात से मुकर जाते है। और उनको चुनने वाली जनता अपने ठगा सा महसूस करती है। इसलिए अब समाज में नेता शब्द की सार्थकता शनै: शनै: समाप्त हो रही है। आज नेता शब्द व्यंग और गाली के रूप मे अपना प्रभाव कायम करता जा रहा है। हमारे नामचीन व्यंगकार नेताओं को लेकर हर रोज पत्र-पत्रिकाओं में तीखें व्यंग लिखते है और कार्टूनिस्टों को कार्टून बनाने के लिए मसाला उपलब्ध कराते है।
यहां सबसे बड़ा सवाल इस बात का है कि विश्वास कायम करने के लिए अब शब्द कमजोर पड़ने लगे है। अविश्वास का प्रभाव इस वक्त सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्रों में देखने को हर रोज मिल रहा है।
शब्दों की घटती सार्थकता के लिए सबसे ज्यादा दोषी हमारे सियासी रहनुमा है। अपने छुद्र राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए समाज को बांटने के काम लगे है। नयी-नयी परिभाषा गढ़कर समाज में वैमनस्यता फै लाकर राजनीति को व्यापार की शक्ल दे रहे है। जो राजनीति जनता की सेवा और व्यवस्था संचालन का आधार थी, आज वह अपन बदले हुए रूप में जनता के शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार की ध्वज वाहक बन गयी है।
आज समाज में ज्यादातर लोग शब्दों का दुरुपयोग कर एक दूसरे को ठगने में लगे है। आज हर क्षेत्र में बढ़ती व्यावसायिकता ने शब्दों की सार्थकता का सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा कहे गये शब्दों के मायने क्या है?

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