शनिवार, 13 नवंबर 2010

-विवेक दत्त मथुरिया
बचपन जीवन की सबसे स्वर्णिम अवस्था का नाम है। जाति-पांति, दीन-ईमान, अमीरी-गरीबी आदि की भावना से मुक्त। उसके दोस्त न हिंदू होते हैं, न मुसलमान। बस..दोस्त होते हैं। वे मंदिर-मस्जिद के विवाद से भी परे होते हैं। उनकी सबसे अनमोल थाती कांच की चूड़ियों के टुकड़े, ताश की गड्डी के पत्ते, कागज की पतंगें, कंचे, घिस कर चपटे किये गये पत्थर या ईंट के टुकड़े होते हैं। बचपन का यथार्थ चित्रण करते हुए प्रख्यात शायर स्व. सुरर्शन फाकिर ने कहा है कि ‘न दुनिया का गम था, न रिश्तों के बंधन। बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी...।’ लेकिन आज समां ही बदल गया है। बारिश आज भी पहले की तरह रिमझिम-रिमझिम होती है। लेकिन इस रिमझिम बारिश में बच्चे भीगते नहीं है। नालियों, गड्ढों और तालाबों में कागज की नाव बनाकर तैराने की फुरसत उनके पास नहीं है। वे एक मायावी दुनिया में जीने लगे हैं। यह मायावी दुनिया है इलेक्ट्रानिक खिलौनों, कंप्यूटर और वीडियो गेम्स की। इस मायावी दुनिया ने उनका बचपन छीन लिया। बच्चों में आप पहले जैसी मासूमियत और अबोधता देखने को नहीं मिलती। आज दिशाहीन विकास और आगे निकलने की आपाधापी में बचपन कहीं गुम सा हो गया है। आखिर इसके लिए दोषी सिर्फ हम सब हैं। हम सब क ौन? वे अभिभावक जो अभिजात्यता के मद में बच्चों को अपनी जागीर समझने लगे हैं।आज बच्चों की अभिरुचि में खतरनाक बदलाब देखने को मिल रहे हैं। कभी मेले में वंशी के लिए रोने-बिलखने वाला बचपन आज खिलौना पिस्तौल और बंदूक के लिए हठ करता है। सृजनात्मक अभिरुचि आज विध्वंसक प्रवृत्ति में तब्दील हो गयी है। Ñअब गांवों-शहरों के बच्चों में पहले जैसा अल्हड़पन और धमाचौकड़ी की रुचि दिखायी नहीं देती। गांव, कस्बों व शहरों की गलियों और मैदानों में गिल्ली डंडा, अंटा गोली, चोर सिपाही, पोसम्पा भाई पोसम्पा....हरा समंदर गोपी चंदन, बोल मेरी मछली कितना पानी जैसे परंपरागत खेल बच्चे नहीं खेलते। पिछले दो दशक में सब कुछ इतना बदल गया है कि इन खेलों के बारे में आज के बच्चे जानते ही नहीं हैं।आखिर यह सब क्या है? कौन सा विकास और किसका विकास है? विकास की अंधी दौड़ ने बच्चों से उनकी सम्मोहक मुस्कान को छीन लिया है। बच्चे उम्र से पहले परिपक्व दिखायी देने लगे हैं, जो बाल मनोविज्ञान के अनुसार एक विकृति (एबनॉर्मलिटी) मानी गयी है। कभी बच्चे घर के अनुपयोगी कबाड़ से मोटरगाड़ी जैसे खिलौने बनाकर अपना मनोरंजन किया करते थे, लेकिन मां-बाप ऐसा करने को हेय समझते हैं।हंसता खेलता बचपन आज मां-बाप की दमित इच्छाओं के तले सिसक रहा है। हमें तो बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर, सीए या फिर किसी बहुराष्टÑीय कंपनी का आला अफसर जो बनाना है। उसकी रुचि, अभिरुचि और क्षमताओं को जाने बिना। भोर में नींद में अलसाये बच्चे को स्कूल भेजने की जबरदस्ती, स्कूल से लौटने पर होमवर्क, फिर ट्यूशन और लो हो गयी रात। बड़ा सवाल यह है कि हम बच्चों का बचपन छीनकर क्या हासिल कर लेंगे। क्या उनका वास्तव में सर्वागीण विकास कर रहे हैं? समाजशास्त्र की भाषा में इसे ‘सोशल क्राइम’की संज्ञा दी गयी है। यह दास्तान तो उन बच्चों की है जिनके मां-बाप की आमदनी का जरिया नौकरी, व्यापार या कोई अन्य रोजगार है।लेकिन इसका एक दूसरा भी पहलू है। उन बच्चों के बारे में सोचिए, जिनके मां-बाप को दो जून की रोटी के लिए चौबीस घंटे खटना पड़ता है। ऐसे परिवार के बच्चों को क्या खेलने का पर्याप्त अवसर मिलता है? नहीं, सुबह होते ही उनके हाथ में प्लास्टिक, कागज आदि बीनने का थैला पकड़ा दिया जाता है। या फिर ऐसे ही कामों में उन्हें जोत दिया जाता है। इनके लिए तो खेल और खिलौने कोई मायने नहीं रखते हैं।

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