मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

विजयादशमी दशहरा के पर्व को हम असत्य पर सत्य की जीत के रूप में मानते चले आ रहे है। यह सिर्फ एक परम्परा का मात्र निर्वहन है। राम-रावण के कथानक से जुडी इस परंपरा का हमारे जीवन का कोई सरोकार जुडा है ? ऐसा कुछ दूर - दूर तक कतई दिखाई नहीं देता। हकीकत तो ये है कि आज हमने राम को वनवास देकर अपने अन्दर रावण को जो बसा लिया है। रावण के पास अहंकार के कई आधार थे। हम दरिद्रियों के पास तो अहंकार की कोई वाजिब बुनियाद भी नहीं है। फिर इस मूर्खता की वजह क्या है? हम अहंकार के स्तर पर भी टुच्चे बने हुए है। चौतरफा अमानवीय वातावरण हमारे टुच्चेपन की तस्दीक कर रहा है।

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