बुधवार, 23 फ़रवरी 2011
- 6:12 am
- विवेक दत्त मथुरिया
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मैंने अपनी आंखों से लाशों का जीवन देखा है
आपने लाशों का जीवन देखा है या नहीं
यह मैं नहीं जानता
पर जानता हूॅ लाशों का जीवन
मैँने एक बार भोलानाथ तिवारी की पुस्तक
शब्दों का जीवन पढ़ी थी
जिसमें बताया गया शब्दों का जीवन
शब्द जन्म लेते हैं, शब्द मरते हैं
शब्द बड़े होते हैं, शब्द घटते आदि
ऐसे ही लाशें का जीवन होता हैं
लाशें जन्म लेती है, लाशें मरती हैं
लाशे खाती हंै, लाशें पीती हैं
लाशें हंसती हैँ, लाशें रोती हैं
लाशों का अपना एक संसार है
लाशें युवा भी हैँ, वृद्ध भी
लाशें शिक्षित भी और अशिक्षित भी
लाशें गरीब भी है, अमीर भी
लाशों के यहां जनतंत्र है
मंहगाई और भ्रष्टाचार से लाशें परेशान है
लाशें बेवस और लाचार भी
लाशों की अपनी जातियां हैं और धर्म भी
लाशें अपराधी हैं और दलाल भी
यह सब में लाश की मानिंद बैठा सोच रहा था
तभी मेरे कानों एक गीत सुनाई पड़ा
आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिन्दुस्तान की...
विवेक दत्त मथुरिया
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