शनिवार, 16 जनवरी 2016
बुधवार, 2 दिसंबर 2015
मंगलवार, 29 सितंबर 2015
- 12:55 am
- विवेक दत्त मथुरिया
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भगत सिंह को माना, पर जाना नहीं
विवेक दत्त मथुरियाआज तरक्की की हवाई बातों के बीच देश आज भी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषमता को बोझ तले दबा है। उत्पीड़न, अन्याय और शोषण के जमीनी सच को हमारे सियासदां स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। आज देश में जिस तरह की आर्थिक नीतियों से सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति को संरक्षण प्रदान किया जा रहा है, वह पूरी तरह साम्राज्यवाद का ही बदला हुआ नया चेहरा है, जिसकों भूमंडलीकरण का नाम दिया गया है। इस भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों में आर्थिक सुधार के नाम पर बुनियादी हकों से वंचित लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। तब ऐसे में शहीद-ए- आजम भगत सिंह के विचार मुखर हो उठते हैं। विडंबना तो इस बात की है कि अपनी फैशनेबल देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए देश का मध्यवर्ग क्रांतिकारियों के प्रति अपनी कृतज्ञता तो दिखाता है, पर उनके विचारों से उसका दूर-दूर तक सरोकार नहीं है। सवाल इस बात का है कि क्या हमने कभी भगत सिंह के विचार और सरोकारों को समझने की कोशिश की है? शायद नहीं, इन सब बातों के लिए यहां अवकाश किस के पास है। मध्यवर्ग आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का वर्ग हे न कि आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के लिए संघर्ष का। भगत सिंह की दरकार तो है पर पड़ोसी के घर में अपने घर तो कोई हर्षद मेहता या तेलगी जन्म ले। आज की पीढ़ी शहीद भगत सिंह के बारे में मोटे तौर पर बस इतना ही जानती और समझती है कि भगत सिंह ने देश को ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। हमारी मौजूदा युवा पीढ़ी भगत सिंह के राजनीतिक और सामाजिक विचारों से पूरी तरह अनिभिज्ञ है। आजादी के बाद एक सोची समझी राजनीतिक साजिश के तहत भगत सिंह के राजनीतिक विचारों से जनता को दूर रखा गया। क्योंकि भगत सिंह ने आजाद भारत में समाजवादी शासन का स्वप्न अपनी आंखों में पाल रखा था। महात्मा गांधी को छोड़कर अधिकांश क्रांतिकारी भगत सिंह के इस राजनीतिक विचार से पूर्ण सहमति रखते थे। 23 साल के युवा भगत सिंहं की वैचारिक परिपक्वता और प्रतिबद्धता लाजवाब थी। भगत सिह ने क्रांति की सुसंगत परिभाषा गढ़ी। क्रांति की वैचारिक धार को विस्तार देने के लिए अपने जीवन बलिदान को माध्यम बनाया। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आजादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। भगत सिंह के जन्म की तारीख को लेकर मतभेद है। कुछ लोग 27 और कुछ लोग 28 सितंबर मानते हैं। सन् 1907 को लायलपुर जिÞले के बंगा में (अब पाकिस्तान में) हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनका पैतृक गांव खटकड़ कलां है जो पंजाब, भारत में है। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्याधिक प्रभावित रहे। भगत सिंह की चेतना की गहनता को उनके एक लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ से समझा जाा सकता है। यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार ‘द पीपुल’ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ-साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। भगत सिंह ने अपने लेख सवाल करते हुए कहा है- ‘मैं पूछता हूं तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल संपूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूं कि वह लागू करे। जहां तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध ‘एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण’ सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है?’ भगत सिंह के इन विचारों में मानवता की श्रेष्ठता की स्थापना की अवधारणा को समझा जा सकता है।
रविवार, 20 सितंबर 2015
- 2:37 am
- विवेक दत्त मथुरिया
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श्रीराधा सर्वेश्वरी अलबेली सरकार विवेक दत्त मथुरिया
प्रेम जीवन का सबसे रहस्यमय गोपनीयतत्व होता है। प्रेम की गोपीनीयता का आधार दो लोगों की आत्मीयता का चरम लक्ष्य है। क्योंकि उसकी रसात्मक भाव स्थिति वर्णनातीत ही रहती है। श्रीराधा को श्रीकृष्ण की आराध्या,प्राणबल्लभा, प्राणल्हादिनी, प्राण मंजूषा और न जाने अन्ययता के अनेकानेक विश्लेषणों से विभूषित किया गया है। राधा-कृष्ण की इस अन्ययता का सीधा और सरल भाव यह है कि एक ही तत्व के दो भाग यानी दोनों शरीरों में एक ही आत्मा विराजमान है। राधाकृष्ण की इस रूहानी एकात्मकता के लिए कहा जाता है कि ‘राधा कृष्ण सनेही एक प्राण दो देही।’ प्रेम अपने चरम भाव स्थिति में एक प्राण हो जाता है। जीव और परमात्मा के मिलन से जुड़ी योग की समाधि अवस्था का परम लक्ष्य भी यही होता है। ब्रज गोपियों के इसी प्रेम योग से ब्रह्मज्ञानी उद्धव का हठयोग खंड खंडित हो गया। सवाल इस बात का है कि अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से श्रीकृष्ण ही कठिन और गूढ़ तत्व हैं, तब राधातत्व को समझने की कामना करना कैसे संभव हो सकता है। त्याग प्रेम की कसौटी है। राधा-कृष्ण का विछोह उनकी इसी आत्मिक एकरूपता की पुष्टि करता है। राधा के लोक कल्याण की प्रेम प्रेरणा के लिए श्रीकृष्ण द्वारा ब्रज तजने से दोनों के बीच की विरह स्थिति के महाभाव का वर्णन शब्दों में संभव नहीं है। लोक कल्याण के लिए दोनों का यह विछोह उनके प्रेम को अलौकिक और वंदनीय बनाता है। राधा कृष्ण यह विछोह प्रेम प्रेरणा और त्याग की शक्ति को सिद्ध करता है। श्रीकृष्ण का संपूर्ण संघर्षमय जीवन राधातत्व से अभिभूत है। श्रीकृष्ण तो राधा के लोक कल्याण की कामना के कार्यकारी हैं, क्योंकि राधा ही ब्रज की अधिष्ठात्री हैं। कृष्ण के लोक कल्याण के संघर्ष में राधा के प्रेम की इच्छा का समझा जा सकता है और इसीलिए राधा सर्वेश्वरी अलबेली सरकार हैं। यही कारण है कि श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन का रोजनामचा मिलता है और राधा के शेष जीवन की क्रियाओं से लोग अनिभिज्ञ ही हैं। भारतीय धर्म, अध्यात्म की सनातन परंपरा गूढ़ रहस्यों से भरी हुई है। जिसको जितना समझ में आया उसने उतना अभिव्यक्त कर दिया। इसी गूढ़ रहस्य परंपरा का गोपनीय तत्व है श्रीराधा। श्रीराधा के अस्तित्व को लेकर विद्वानों में एक राय नहीं रही है। कोई राधा को आधुनिक काल की कल्पना मानता है तो कोई भक्त कवियों के मन की प्रेमातुर भाव स्थिति। श्रीमद्भागवत में भी राधा को लेकर गोपनीयता देखने को मिलती है। अगर वेद (श्रुति ) को देखें तो राधातत्व का जो उल्लेख मिलता है , वह इस रूप में है: इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण :(ऋग्वेद 3. 51. 10) ओ राधापति श्रीकृष्ण! जैसे गोपियां तुम्हें भजती हैं वेद मंत्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो। राधोपनिषद में श्रीराधा के 28 नामों का उल्लेख है। गोपी, रमा तथा ‘श्री’ राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत के अलावा 17 और पुराण रचे हैं इनमें से छ: में श्री राधा का उल्लेख है। यथा राधा प्रिया विष्णो: (पद्म पुराण) राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण) तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण) रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मतस्य पुराण13. 37) राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित: (देवी भागवत पुराण) श्रीमद्भागवत में राधा नाम की गोपनीयता से जुड़ा दृष्टांत का जिक्र विद्वान और मर्मज्ञ कुछ इस तरह करते हैं कि परमहंस शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को भागवत कथा सुनाई थी। शुकदेव जी श्रीराधे के चिरंतन सहचर हैं।लीला शुक हैं। शुकदेव जो गौलोक में जहां श्रीराधे निवास करती हैं अत्युत्तम बातें सुनाया करते हैं। राधा रानी के प्रति उनका अनन्य प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि एक मर्तबा राधा नाम मुख से लेने पर वह छ: माह के लिए समाधिस्थ हो जाते। परीक्षित को सात दिनों के बाद सर्प दंश की लपेट में आना ही था शापित थे इसीलिए वह सीधे-सीधे राधा नाम अपने मुख से नहीं लेते हैं बल्कि उसके पर्यायवाचियों का उच्चारण करते हैं।
आधुनिक काल में राधा की प्रेम भक्ति को विस्तार देने का श्रेय ब्रजोद्धारक, ब्रजयात्रा प्रर्वतक, रासलीला अनुकरण के आविष्कारक और बरसाना में श्रीराधा प्राकट्यकर्ता ब्रजाचार्य महाप्रभु श्रील् नारायण भट्ट जी को जाता है। जिन्होंने विलुप्त ब्रज की पुनरस्थापना के साथ बरसाना में राधाजी का प्राकट्य कर तत्कालीन राजा, महाराजाओं से मंदिर की स्थापना कराई और बेटी स्वरूप में राधाजी को लाड़ो का संबोधन देकर पिता-पुत्री के अनन्य भाव से भक्ति की। नारायण भट्ट जी का यह भागीरथी प्रयास आज राधे-राधे नाम की गूंज में चहुंओर सुनाई दे रहा है। राधा तत्व की गूढ़ता और रहस्य को सार रूप में इतना ही समझा जा सकता है कि आदि शंकराचार्य ने राधाजी की स्तुति करते हुए बस यही कामना की है कि:
कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2015
शुक्रवार, 11 सितंबर 2015
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