धर्म यानि कल्याण। हाँ ,यही सारभूत अर्थ है धर्म का। घर्म के इस आशय से शायद ही किसी कि असहमति हो। धर्म मनुष्य के जीवन पथ पर उस फल व् छायादार वृक्ष की तरह है जो जीवन संघर्ष से थके मनुष्य को आश्रय देता है और फिर आगे बढ़ने की ऊर्जा प्रदान करता है। इसलिए हमारे धर्म को सनातन धर्म कहा गया है। भारतीय सनातन धर्म की बुनियाद त्याग, तपस्या और सेवा जैसे सनातन तत्वों पर टिकी है। लेकिन वर्तमान भौतिकता का प्रभाव इसे खंडित करता नजर आ रहा है। धर्म उस कला या विद्या का नाम है, जिसकी प्राप्ति होने पर व्यक्ति उस आनंद का अधिकारी हो जाता है, जिसको वाणी से व्यक्त करना संभव नहीं है। यह अवस्था त्याग, तपस्या और सेवा जैसी साधना से प्राप्त होती है। लेकिन मौजूदा दौर में धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह क्षोभ को ही विस्तार दे रहा है। आज धर्म के नाम पर एश्वर्य का अपना-अपना साम्राज्य देखा जा सकता है, जिसमे आभाव ग्रस्त लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। आज धर्म के क्षेत्र में उन सभी गलत चीजों के दर्शन किये जा है जो राजनीति और व्यापार जैसे क्षेत्रों में जायज करार दी जाती है। जंहा नीति और नैतिकता की बातें करना मूर्खता के आलावा कुछ भी नहीं है। वर्तमान में राजनीति, व्यापार धर्म का गहरा गठजोड़ देश की भोली-भाली जनता को बरगला कर अपने हितों की पूर्ति करने में जुटा है। साधु सन्यासियों के भेष में छुपे भेडियों के कुकर्मों की कहानी अब किसी से छुपी नहीं है और न ही आश्चर्य उत्पन करती है। आज धर्म मानव कल्याण के सरोकार से भटका हुआ है। आज परमार्थ जैसी बातें सिर्फ प्रचार, चंदा। चढ़ावा भेंट और दान के लिए बढे ही तकनिकी ढंग से प्रयोग की जाती है। धर्म क्षेत्र से जुडी इस तरह की प्रवत्तियों ने धर्म को और संधिगता के मुहाने पर ला खड़ा है इतने पर भी धर्म के ध्वजवाहक मठाधीशों का चिर मौन उनके चरित्र पर भी उसी तरह का सवालियां निशान लगता है।
सोमवार, 28 जून 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें